कौसानी पहुँचकर लेखक ने बर्फ से ढंकी हुई हिमालय की पर्वत श्रृंखला को देखा। उस समय उसके मन में क्या भावनाएँ उठ रही थीं; यह तो वह नहीं बता सकता किन्तु उसके माथे पर हिमालय की शीतलता की अनुभूति हो रही थी। उसके मन के सभी संघर्ष, ताप तथा अन्तर्द्वन्द्व नष्ट हो रहे थे।
लेखक को यह बात पहली बार समझ में आ रही थी कि पुराने ऋषि एवं मुनियों तपस्वियों ने दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों को ताप क्यों कहा है। वे उनको शांत करने के लिए हिमालय क्यों जाते थे। प्राचीन ऋषियों ने तीन तापों का उल्लेख किया है तथा उनको मनुष्य के लिए दु:खदायी बताया है। दैहिक ताप वे दुर्गुण हैं जिनका सम्बन्ध मनुष्य के शरीर से होता है। ईष्र्या, द्वेष, क्रोध, काम, परपीड़न इत्यादि दुर्गुण मनुष्य के मन (शरीर) में ही जन्म लेते हैं। हिमालय का शांत वातावरण उनके शमन में सहायक होता है। दैविक ताप पारलौकिक कष्ट हैं। तपस्वी उनके बारे में जानने और उनसे मुक्ति प्राप्त करने के लिए हिमालय को पावन भूमि पर ध्यानस्थ होते थे। भौतिक अर्थात् सांसारिक ताप शरीर से सम्बन्धित हैं। ये शारीरिक रोग भी हैं। हिमालय का प्रदूषण मुक्त निर्मल वातावरण तथा वहाँ की जड़ी-बूटियाँ रोग मुक्ति में सहायक होती थीं।