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in सृजन - ठेले पर हिमालय (निबन्ध) by (49.6k points)
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महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की सन्दर्भ सहित व्याख्याएँ।

सिर्फ एक धुंधला-सा संवेदन इसका अवश्य था कि जैसे बर्फ की सिल के सामने खड़े होने पर मुंह पर ठण्डी-ठण्डी भाप लगती है, वैसे ही हिमालय की शीतलता माथे को छू रही है और सारे संघर्ष, सारे अंतर्द्वन्द्व, सारे ताप जैसे नष्ट हो रहे हैं। क्यों पुराने साधकों ने दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों को ताप कहा था और उसे शमित करने के लिए वे क्यों हिमालय जाते थे यह पहली बार मेरी समझ में आ रहा था। और अकस्मात् एक दूसरा तथ्य मेरे मन के क्षितिज पर उदित हुआ। कितनी-कितनी पुरानी है यह हिमराशि! जाने किस आदिम काल से यह शाश्वत अविनाशी हिम इन शिखरों पर जमा हुआ है। कछ विदेशियों ने इसीलिए हिमालय की इस बर्फ को कहा है-चिरंतन हिम (एटर्नल स्नो)। सूरज ढल रहा था और सुदूर शिखरों पर दरे, ग्लेशियर, ढाल, घाटियों का क्षीण आभास मिलने लगा था। आतंकित मन से मैंने यह सोचा था कि पता नहीं इन पर कभी मनुष्य का चरण पड़ा भी है या नहीं या अनंत काल से इन सूने बर्फ ढंके दरों में सिर्फ बर्फ के अंधड़ा-ह करते हुए बहते रहे हैं।

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कठिन शब्दार्थ- संवेदन = अनुभूति। अन्तर्द्वन्द्व = मन में स्थित परस्पर विरोधी विचार। ताप = गर्मी, दुःख। साधक = तपस्वी, ऋषि। दैहिक = शरीर सम्बन्धी। दैविक = दैव (भाग्य) सम्बन्धी। भौतिक = सांसारिक। शमित = शांत। तथ्य = सच्चाई। अकस्मात = अचानक। क्षितिज = वह स्थान जहाँ पृथ्वी और आकाश मिलते हुए प्रतीत होते हैं, परदा। उदित = प्रगट। आदिम = अत्यन्त प्राचीन। शाश्वत = अमर। अविनाशी = कभी न मिटने वाली। चिरंतन = सदा स्थायी। आतंकित = भयभीत। अंधड़ = आँधी, तूफान।।

सन्दर्भ एवं प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘ठेले पर हिमालय’ शीर्षक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक धर्मवीर भारती हैं। लेखक तथा उसके साथियों ने डाकबंगले में अपना सामान रख दिया और बरामदे में बैठकर एकटक पर्वत शिखरों की ओर देखते रहे। उनके मन में तरह-तरह की भावनायें उत्पन्न हो रही थीं।

व्याख्या-लेखक कहता है कि मन में उठने वाली भावनाओं को बता पाना संभव नहीं था। जिस प्रकार बर्फ की सिल के पास खड़े होने पर उसकी ठण्डी भाप मुँह पर लगती है, उसी तरह हिमालय का ठंडापन उनके माथे पर पड़ रहा था। उसकी अस्पष्ट अनुभूति हो रही थी। हिमालय की शीतलता के प्रभाव से उसके मन के सभी कष्ट, संघर्ष और अनिश्चय मिटते जा रहे थे। यहाँ आकर लेखक को पहली बार यह बात समझ में आई कि पुराने तपस्वी, ऋषि-मुनि हिमालय पर इसी कारण आते थे। उन्होंने मनुष्य के तीन तरह के कष्टों का उल्लेख किया है-शारीरिक, आत्मिक तथा सांसारिक। हिमालय में उनके इन कष्टों, जिनको उन्होंने ताप कहा है, को दूर करने की शक्ति है। इन कष्टों से मुक्त होने के लिए ही वे हिमालय पर जाते थे। किन्तु अचानक एक अन्य सच्चाई उसके मन के क्षितिज जैसे पर्दे पर प्रकट हुई। उसने सोचा-यह बर्फ कितनी पुरानी है। दूरवर्ती अनादि काल से यह अमर, कभी नष्ट न होने वाली बर्फ हिमालय की चोटियों पर जमी है। इसी विशेषता के कारण कुछ विदेशियों ने इस बर्फ को ‘एटर्नल स्नो’ अर्थात् सदा जमी रहने वाली बर्फ कहा है। सूरज अस्त होने वाला था। उसके धुंधले प्रकाश में दूरवर्ती पर्वत-चोटियों पर दर्रे, ग्लेशियर, ढाल और घाटियाँ अस्पष्ट दिखाई दे रही थीं। कुछ भयभीत होकर लेखक ने सोचा कि क्या कभी मनुष्य के पैर इन बर्फीले प्रदेशों पर पड़े हैं? अथवा सदा से ही यहाँ बर्फ के तूफान भयानक आवाज करते हुए आते रहे हैं?

विशेष-
(i) हिमालय को देखकर लेखक विचारमग्न हो गया।
(ii) उसने अनुभव किया कि पुराने कवियों का हिमालय के प्रति आकर्षण क्यों था।
(iii) भाषा तत्सम शब्द प्रधान है।
(iv) शैली वर्णनात्मक व विचारात्मक है।

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