कठिन शब्दार्थ- हिम= बर्फ का शासक। बादल छंटना = अवरोध दूर होना। उभरना = ऊपर निकलना, प्रकट होना। प्रकृति = स्वभाव। चेष्टा = प्रयत्न। ताकि = जिससे। स्तर = तल, समानता। कुंठित = उत्साहहीन।
सन्दर्भ एवं प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘सृजन’ में संकलित ‘ठेले पर हिमालय’ शीर्षक यात्रावृत्तान्त से उद्धृत है। इसके लेखक धर्मवीर भारती हैं।
सूर्यास्त होने पर लेखक और अन्य सभी डाकबंगले के बरामदे से उठे और चाय आदि पीने में लग गए। अँधेरा होने के कारण बाहर कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। पर्वत के शिखर भी अँधेरे में डूबे हुए थे।
व्याख्या- लेखक कहता है कि थोड़ी देर के पश्चात् आकाश में चन्द्रमा उदय हुआ। उसकी चाँदनी फैल गई तो सभी लोग पुनः बाहर आ गए। इस समय सब जगह शांति फैली हुई थी। ऐसा लग रहा था जैसे बर्फ को भी नींद आ गई थी। लेखक ने आरामकुर्सी उठाई और कुछ दूर हटकर बैठ गया। वह सोचने लगा कि हिमालय के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर भी उसके मन में भाव क्यों नहीं उठ नहीं रहे हैं? वह कल्पना-शून्य क्यों हो गया था। इसी हिमालय को देखकर अनेक कवियों ने अनेक कविताएँ लिखी हैं। किन्तु लेखक का मन कविता की एक लाइन तो क्या एक शब्द भी लिखने में असमर्थ था। लेखक विचार कर रहा था कि कविता न लिख पाना बड़े महत्त्व की बात नहीं थी। हिमालय की विशालता के सामने सब कुछ छोटा प्रतीत हो रहा था। धीरे-धीरे लेखक का मन विचार-शून्यता से मुक्त होने लगा। हिमालय की ऊँची पर्वत-श्रेणियों के स्वभाव के अनुरूप ही उसके मन में कुछ भव्य भाव उत्पन्न हो रहे थे। इन भावों में कुछ ऐसा था जो उसको हिम-शिखरों की ऊँचाई तक उठाने का प्रयत्न कर रहा था। जिससे वह उन शिखरों के साथ समानता के भाव के साथ मिल सके। लेखक को ऐसा लग रहा था कि हिमालय बड़ा भाई है। वह ऊपर चढ़ गया है। वह अपने छोटे भाई लेखक को नीचे, उत्साहहीन तथा लज्जित खड़े देखकर उसका उत्साह बढ़ा रहा है। वह प्रेमपूर्वक उसको ललकार रहा है कि क्या वह भी ऊँचा और श्रेष्ठ बन सकता है।
विशेष-
(i) डाकबंगले के बरामदे में बैठा लेखक विचारमग्न है।
(ii) लेखक के मन को हिमालय से प्रेरणा मिल रही है कि वह उच्च तथा महान बने।
(iii) भाषा सरल तथा विषयानुकूल है।
(iv) शैली भावात्मक है।