पाँच लोग थे। वे सभी भाँग पीते और मस्त रहते थे। एक बार कमाई करने के इरादे से वे परदेश गए। रास्ते में एक मंदिर में सो गए। सवेरे गिना तो वे चार ही रह गए थे। गिनने वाला अपने को नहीं गिनता था।
इस कथा के माध्यम से लेखक बताना चाहता है कि संसार में लोग ऐसा ही करते हैं। वे अपने दोष तथा कमियाँ नहीं देखते। दूसरों की कमियाँ देखते हैं। उनकी बुराई करते हैं। वे दूसरों को सुधारना चाहते हैं। अपनी बुराइयों के बारे में वे जानते ही नहीं हैं, अत: उनमें सुधार के बारे में भी वे नहीं सोचते।
लेखक संदेश देना चाहता है कि मनुष्य स्वयं को ही बदल सकता है। वह दूसरों को नहीं बदल सकता। अपने अन्दर उसे सुधार करना चाहिए। दूसरों के दोष देखने, उनसे घृणा करने तथा अपने को दोष रहित समझने से उसमें अहंकार का भाव जागता है। इससे उसके मन में घृणा का भाव जन्म लेता है। मनुष्य को स्वयं को बदलना चाहिए। उसको ऐसे काम करने चाहिए कि दूसरे उससे प्रेरणा लें। उसका अधिकार अपने में परिवर्तन लाने का ही है। दूसरों के बदलने का उसको हक नहीं है।