“मैं और मैं” पाठ का शीर्षक बताता है कि मनुष्य को केवल अपने सम्बन्ध में ही सोचने का अधिकार है, लेकिन वह सदा से दूसरों के विषय में सोचता रहा है। विशेषतः जब दोष देखने का समय होता है, तो मनुष्य को दूसरों के दोष तो दिखाई देते हैं, परन्तु अपने नहीं। दूसरों के दोष देखकर वह उनको सुधारना चाहता है, परन्तु अपनी बुराइयों पर ध्यान नहीं देता। इस प्रकार, सुधार काम-काम कभी पूरा नहीं होता और वह अधूरा ही बना रहता है।
कहते हैं जब आदमी धरती पर आया, तो ईश्वर ने उसको दो थैले दिए। पहले में उसके दोष भरे थे तथा दूसरे में उसके पड़ौसी के । ईश्वर ने कहा कि वह पहला थैला अपनी छाती पर तथा दूसरा पीठ पर लटकाए । मनुष्य ने सोचा कि देखें दूसरे थैले में क्या है? उसने उसको आगे तथा पहले थैले को पीछे लटकाया। तभी से उसको अपने नहीं दूसरों के दोष ही दिखाई देते हैं। आशय यह है कि परदोष देखना मनुष्य का स्वभाव है।
जब दोषों को सुधारने का प्रश्न उठता है, तो दूसरों के दोष ही सामने होते हैं। लेखक के अनुसार, यह मनुष्य के अधिकार से बाहर की बात है। उसको अपने बारे में ही सोचना चाहिए तथा अपना ही सुधार करना चाहिए। मनुष्य को अच्छे काम करने चाहिए, जो दूसरों के लिए प्रेरणा स्रोत बने । मनुष्य अपने में ही सुधार कर सकता है। दूसरों को सुधारने की बात निरर्थक है। यदि वह स्वयं सुधर जायेगा, तो दूसरे उसको देखकर स्वयं ही सुधर जायेंगे। उसे सुधार के लिए कोई आन्दोलन नहीं चलाता है। केवल ऐसे काम अच्छे काम करने हैं, जो दूसरों को वैसा ही करने की प्रेरणा दें और उनमें सुधार होने का आधार बने।