गाँधी यह मानते थे कि चरखे से ही हिन्दुस्तान की कंगाली मिट सकती है। भुखमरी मिटने पर ही स्वराजे मिल सकता है। 1915 में गाँधी दक्षिण अफ्रीका से लौटे पर उन्होंने चरखा नहीं देखा था। आश्रम के खुलने पर करघा शुरू हुआ। गाँधी और आश्रम के आदमी पढ़े-लिखे और व्यापारी थे तथा करघा चलाना नहीं जानते थे। करघा मिलने पर भी सिखाने वाला कोई नहीं था। काठियावाड़ और पालनपुर से करघे के साथ सिखाने वाला भी मिला। मगनलाल गाँधी के हाथ में कारीगरी थी इसलिए उन्होंने करघा चलाना सीख लिया और आश्रम में नये-नये बुनने वाले तैयार हुए।
आश्रम के लोगों को अपने तैयार किये हुए कपड़े पहनने थे। यह निश्चय किया गया कि हाथकरघे से बना देशी मिल के सूत का कपड़ी पहना जाए। हिन्दुस्तान के कारीगरों की गरीबी और कर्जदारी का पता लगा। सभी अपना कपड़ा स्वयं बुन सकें ऐसी स्थिति नहीं थी। अत: बाहर के बुनकरों से कपड़ा बुनवाना पड़ता था। यहाँ की मिलें महीन सूत नहीं कात सकती थीं। देशी मिल सूत का बुना कपड़ा शीघ्र मिलता भी नहीं था। इस कारण विलायती सूत का कपड़ा ही तैयार होता था। कुछ समय बाद बुनकर मिलें जिन्होंने देशी सूत से कपड़ा तैयार करने की मेहरबानी की परन्तु उन्हें यह विश्वास दिलाना पड़ा कि उनका कपड़ा खरीद लिया जाएगा। मिलों के सम्पर्क में आने पर उनकी व्यवस्था बिगड़ी और बुनकरों की लाचारी का भी पता चला। मिलें खुद का कपड़ा तैयार करतीं। हाथकरघे की सहायता अनिच्छा से लेतीं । पराधीनता से मुक्ति के लिए हाथ से कातना अनिवार्य हो गया।
करघा और उसके चलाने वालों का अभाव था। कालिदास वकील एक महिला को लाए भी पर उसको हुनर हाथ नहीं लगा। गाँधी जी मित्र के साथ भौंच शिक्षा परिषद् में गये। वहाँ एक साहसी विधवा बहन गंगाबाई मिलीं। गाँधी जी ने उससे अपनी व्यथा कही। गंगाबाई ने गाँधी जी की समस्या को समझा और उनकी चिन्ता दूर की।