इस अंश में गाँधीजी की हिम्मत एवं अन्याय के विरुद्ध लड़ने की भावना के दर्शन होते हैं। जोहानिस्बर्ग के थाने में न्यायोचित कार्य नहीं होता था। हकदार दाखिल नहीं हो पाते थे और बिना हकवाले सौ-सौ पॉण्ड देकर चले आते । गाँधी के पास इसकी शिकायत आती। गाँधी को बुरी लगता था। उन्होंने सोचा यदि इनकी सहायता नहीं की तो उनका ट्रान्सवाल में रहना व्यर्थ है।
गाँधीजी ने भ्रष्ट अधिकारियों के विरुद्ध लड़ाई मोल ली, उनके विरुद्ध प्रमाण एकत्रित किये। न्याय के लिए पुलिस कमिश्नर से मिले। उसने भी गाँधी का सहयोग किया। उसने यह भी कहा कि गोरे पंचों द्वारा गोरे अपराधियों को दण्ड दिलाना कठिन है। पर उसने सहयोग का विश्वास दिलाया। गाँधीजी ने निश्चय कर लिया कि वे उन्हें पकड़वाकर ही दम लेंगे। चाहे उन्हें इसके लिए कितना ही परिश्रम क्यों न करना पड़े। उन्होंने दो अधिकारियों के वारण्ट निकलवाए। गाँधीजी पुलिस कमिश्नर से मिलते, वे अधिकारी इसकी जासूसी कराते। पर गाँधीजी ने इसकी परवाह नहीं की। एक अधिकारी भाग भी गया। पर पुलिस कमिश्नर ने उसे पकड़वा लिया। जूरी ने दोनों अधिकारियों को बरी कर दिया। गाँधी जी को बड़ा दुख हुआ। लेकिन गाँधीजी ने तो डटकर अन्याय का मुकाबला किया ही था। इस पाठांश से शिक्षा मिलती है कि अन्याय का हिम्मत से मुकाबला करना ही चाहिए। जिस प्रकार गाँधीजी ने किया था।