गाँधीजी को शरीर और मन को शिक्षित करने की अपेक्षा आत्मा को शिक्षित करने में अधिक परिश्रम करना पड़ा। वे चाहते थे कि विद्यार्थी अपने धर्म के मूल तत्व को जानें । इस ज्ञान को प्रदान करने के लिए उन्होंने यथाशक्ति प्रयत्न किया। वे आत्मिक शिक्षा को बुद्धिं की शिक्षा का अंग मानते थे। वे आत्मा के विकास का अर्थ चरित्र के निर्माण को मानते थे। ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना, आत्मज्ञान करना मानते थे। इस ज्ञान के बिना सारे ज्ञान व्यर्थ हैं।
गाँधीजी आत्मज्ञान को चौथे आश्रम की बात नहीं मानते थे। वे इस बात में विश्वास करते थे कि जो आत्मज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते, वे पृथ्वी पर भार ही हैं। आत्मिक शिक्षा देने के लिए वे विद्यार्थियों से भजन गवाते, नीति की पुस्तकें पढ़कर सुनाते। बाद में उन्हें अनुभव हुआ कि यह ज्ञान पुस्तकों से नहीं दिया जा सकता। आत्मा की शिक्षा आत्मिक कसरत द्वारा दी जा सकती है और वह शिक्षक के आचरण द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। शिक्षक को सावधान रहना चाहिए। वे चाहते थे कि उनके शिष्य शिक्षक बनें। गाँधीजी ने अनुभव किया कि उन्हें विद्यार्थियों के सामने अच्छा बनकर रहना चाहिए।
गाँधीजी विद्यार्थियों को मारपीट कर पढ़ाने के विरोधी थे। पर उन्हें एक विद्यार्थी को पीटना पड़ा। आश्रम में एक विद्यार्थी बहुत ऊधमी था। वह समझाने पर भी नहीं माना। तब गाँधीजी को क्रोध आ गया और उन्होंने उसे रूल से पीटा। मारते समय वे काँपे, इसे विद्यार्थी ने देख लिया। गाँधीजी को उसे पीटने का पछतावा रहा। इसे उन्होंने अपनी पशुता का दर्शन कराना ही माना। इसे दंड के औचित्य में उन्हें सन्देह था। उस दंड में दुख का ही प्रदर्शन नहीं था उसमें भावना का मिश्रण भी था। विद्यार्थी को पीटने की घटना गाँधीजी नहीं भूले और उन्होंने सोचा कि विद्यार्थी के प्रति शिक्षक को क्या धर्म है। वे आत्मा के गुण को समझने लगे। यह अंश हमें संयम और आत्म-निर्माण के लिए प्रेरित करता है।