‘सभ्य पोशाक में’ अंश में गाँधी जी ने अन्नाहार पर जोर दिया है और उसे सात्विक जीवन के लिए अनिवार्य बताया है। विद्यार्थियों को अध्ययन काल में विद्या-धन अर्जित करना चाहिए और बाहरी टीमटाम पर ध्यान नहीं देना चाहिए। पोशाक, नृत्य कला, भाषण कला आदि पर ध्यान देने की अपेक्षा सात्विक जीवन जीना चाहिए।
‘आत्मिक शिक्षा’ अंश में चरित्र निर्माण पर जोर दिया गया है। आत्मा को शिक्षित करना चाहिए। अपने-अपने धर्म के मूल तत्वों को जानना आवश्यक है। इससे जीवन सार्थक बनता है। आत्मा के विकास से ईश्वर का ज्ञान और आत्म-ज्ञान प्राप्त होगा। इससे जीवन सार्थक बनेगा। गाँधी ने आत्मा की कसरत पर अधिक बल दिया। इसी से जीवन सार्थक बन सकता है।
शान्ति निकेतन में गाँधी जी ने सात्विक जीवन की शिक्षा दी। वैतनिक रसोइयों की अपेक्षा शिक्षक और विद्यार्थी स्वयं भोजन बनाने का काम करें। आरोग्य और नीति की दृष्टि से यह कार्य श्रेष्ठ रहेगा। सभी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। इसका परिणाम यह हुआ कि रसोई बहुत सादी बनने लगी। मसालों का त्याग किया गया। भात, दाल, साग तथा गेहूँ के पदार्थ भाप द्वारा पकाये जाने लगे। सारा जीवन सात्विक और सादगीपूर्ण हो गया। इसके साथ सभी में स्वावलम्बन की भावना जागृत हो गई।
‘खादी का जन्म’ अंश में सात्विक और सार्थक जीवन का उदाहरण मिलता है। गाँधीजी के मन में चरखे और करघे के प्रयोग की प्रबल इच्छा हुई। यद्यपि करघा सिखाने वाले का अभाव था। आश्रम के सभी लोगों ने अपने कपड़े तैयार करके पहनने का निश्चय किया। यह निश्चय किया कि हाथ-करघे पर देशी मिल के सूत का बुना हुआ कपड़ा ही पहनेंगे। हिन्दुस्तानी बुनकरों की स्थिति अच्छी नहीं थी। देशी मिलों के सूत का हाथ से बुना कपड़ा मिलता नहीं था, वह सूत भी मोटा होता था। इस अंश से स्वावलम्बन और स्वदेशी की भावना का पता लगता है। गाँधीजी हाथ के कते सूत के कपड़े पहनने के पक्षधर थे। यह उनकी सात्विकता और सादगी का परिचायक है। सभी अंशों में जीवन की सात्विकता और सार्थकता का भाव मिलता है। जीवन की सार्थकता स्वावलम्बन में है जो कई अंशों में मिलती है।