सेवक का धर्म कठिन होता है। उसे स्वामी के अतिरिक्त और किसी से अनुराग नहीं होता। तुलसी स्वयं को राम का सेवक मानते थे। अतः मन को राम की भक्ति में ही तल्लीन रखना चाहते थे। मोह उत्पन्न होने पर सेवक की भक्ति में व्यवधान उत्पन्न होता है। तुलसी ने इसी कारण रत्नावली को आश्रम में नहीं रहने दिया, यद्यपि उनका मन बार-बार रत्नावली की ओर झुकता था, किन्तु राम की भक्ति को सर्वश्रेष्ठ मानकर उन्होंने रत्नावली का त्याग कर दिया। मोह में नहीं बँधे । सेवक धर्म का निर्वाह तलवार की धार पर चलने के समान है। सेवक को संसार से विरक्त होना पड़ता है। तुलसी ने भी राम की सेवा के लिए सब भोगों का त्याग कर दिया। किसी भी प्रकार के मोह में बँधकर सेवक अपने धर्म से विमुख हो जाता है। इस कारण तुलसी ने सेवक धर्म को कठिन बताया है। राम के अतिरिक्त उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। उनके हृदय में रत्नावली के त्याग का दुख भी है। मैं अपने और पत्नी के सुख के लिए समाज की आस्था अधर में नहीं लटका सकता। यह था तुलसी का व्यक्तित्व।
तुलसी के समय में जनता मुगलों के शासन से संघर्ष करते हुए हतोत्साहित हो गई थी और विलासिता के पंक में डूब चुकी थी।
राजा एक से अधिक स्त्रियाँ रखते थे। मुगलों के शासन में वर्ण व्यवस्था शिथिल हो गई थी। उस समय लोग जीविकाहीन और निरुद्देश्य भटक रहे थे। सदाचार नष्ट हो रहे थे। उनके समय में ओर ही लोगों का ध्यान था। धनोपार्जन विशेष उद्देश्य था। नारियों की दशा ठीक नहीं थी। उदरपूर्ति के लिए सन्तान का क्रय-विक्रय होता था। ब्राह्मणों की स्थिति शोचनीय थी। दहेज प्रथा प्रबल थी। तुलसी के समय विवाह के अवसर पर रीति-रिवाजों का पालन किया जाता था। अन्धविश्वास व्याप्त था। नारियों को एक ओर महान् गौरव प्रदान था तो दूसरी ओर उन्हें मात्र भोग और विलासिता का साधन समझा जाता था। नागरिकों की स्थिति दयनीय थी। उन्हें सामाजिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। सती प्रथा का प्रचलन था। स्पष्ट है कि तुलसी के समय तात्कालीन सामाजिक स्थिति ठीक नहीं थी।