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पद्यांशों की सन्दर्भ एवं प्रसंग सहित व्याख्याएँ ।

काहे री नलिनी हूँ कुम्हलानी।
तेरे ही नालि सरोवर पानी।।
जल में उतपत्ति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास।
ना तलि तपतिन उपरि आगि, तोर हेत कहुकासनि लागि।।
कहै कबीर जे उदकि समान, ते नंहि मुए हमारे जान।

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शब्दार्थ

सामान्य व्याख्या के रूप में देखे तो यहाँ पर कबीर दस जी कह रहे है की, अरी कमलिनी तू क्यों मुरझाई हुई है? तेरे नाल (यानी डंडी) तो तालाब के जल में विद्यमान है, फिर भी तेरे कुम्हलाने का क्या कारण है?

फिर कह रहे है, हे कमलिनी, तेरी उत्पत्ति जल में ही हुई है और तू जल में ही सदा निवास कर रही है और कभी इससे अलग नहीं हुई है, फिर तेरे मुरझाने का क्या कारण है।

न तो तेरा तला तप रहा है न ऊपर से कोई आग तुझे तपा रही है। ये बता कि कही तेरा किसी से प्रेम तो नहीं हो गया है। जिसके वियोग के दु:ख से तू मुरझा रही है।

फिर बाद में कबीर कहते हैं कि जो ज्ञानी पुरुष अपने भीतर के और बाहर के जल की एकता का ज्ञान रखते हैं, वे हमारे मतानुसार कभी मृत्यु के भय से पीड़ित नहीं होते, मतलब आत्मा की और परमात्मा की एकता जानने वाला कभी मृत्यु से भयभीत नहीं होता।

आध्यात्मिक अर्थ

ये तो सर्वविदित है की कबीर दास जी के हर एक शब्द में कुछ न कुछ ज्ञान की बातें छुपी रहती है। इस लिए उनके हर पद्य रहस्यवाद से ओत-प्रोत होता है।

इस पद्य के द्वारा कबीर दास जी, आत्मा और परमात्मा की एकता के सिद्धान्त पर बल दे रहे हैं। कबीर साहेब के मतानुसार आत्मा और परमात्मा एक ही है। सांसारिक विषयों के प्रभाव के कारण जीवात्मा (नलिनी) स्वयं को परमात्मा (जल) से भिन्न समझ बैठती है और स्वयं को नाशवान समझते हुए मृत्यु के भय से दु:खी रहती है।  

अध्यात्म की दृष्टि से देखे तो जीवात्मा (कमलिनी) प्रतिपल परब्रह्म/ परमात्मा (पानी) के संपर्क में रहती है। परमात्मा से उत्पत्ति और उसके मध्य ही स्थित होने के कारण,जीवात्मा  को कोई भी सांसारिक दु:ख (ताप) कष्ट नहीं पहुँचा सकता। फिर भी जीवात्मा इतना  दु:खी क्यों है ?

इसका मतलब जीवात्मा उस परब्रह्म से भिन्न किसी और के प्रति (सांसारिक विषयों में) आसक्त है। इसके अतिरिक्त जीवात्मा के दु:खी होने का और क्या कारण हो सकता है ?

कबीर दास जी कहना है कि कमलदण्ड में स्थित जल (कुंडलिनी शक्ति) और सरोवर का जल (सहस्रार चक्र से झरता हुआ अमृत) का एकीकरण जो जानता है उसके लिए आत्मा और परमात्मा अभिन्न होते है। इस प्रकार के तत्व ज्ञानी लोग स्वयं को अजर-अमर मानते हुए, मृत्यु के भय से सदा मुक्त रहते हैं।

इसके लिए तत्व ज्ञानी को अंतर्मुखी होना पड़ता है। यह अंतर्मुखी ज्ञान एक बहुमूल्य दर्शन होता है, जिसको साधक शब्दों में समझा नहीं सकता, इसको सिर्फ अनुभव ही किया जा सकता है।  

खेचरी मुद्रा के अभ्यास और तत्व के ज्ञान के द्वारा कोई भी साधक अपनी कुंडलिनी शक्ति को पूर्णता से जागृत कर इसे आपने आज्ञा चक्र से होते हुए जब सहस्रार चक्र तक ले जाता है, जब सहस्रार चक्र से जो अमृत तपकती है, उस अमृत को खेचरी मुद्रा के द्वारा पान कर लेता है और एक विशेष तरह की अनुभूति का अनुभव करता है।

इस प्रकार स्वयं को अजर-अमर मानते हुए, मृत्यु के भय से सदा मुक्त रहते हैं।

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कठिन शब्दार्थ – काहे = क्यों।नलिनी = कमलिनी, जीवात्मा। कुम्हिलानी = मुरझा रही है। नालि = नली, कमल के फूल की डंडी, तुम में ही (प्रतीकार्थ) सरोवर = तालाब, परमात्मा।उतपत्ति = उत्पत्ति, प्रकटीकरण (प्रतीकार्थ) जल = पानी, परमात्मा (प्रतीकार्थ)।बास = रहना, स्थिति (प्रतीकार्थ)।तोर = तेरा।निवास = स्थायी रूप से रहना। तलि = तला, नीचे से। ऊपरी = ऊपर से। आगि = कष्ट। हेत = प्रेम, मोह। कहु = बता।कासन = किससे।लाग = लगा है। उदकि = जल। मुए = मरे।जान = समझ से।

संदर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीर के पदों से लिया गया है। इस पद के द्वारा कबीर आत्मा और परमात्मा की एकता के सिद्धान्त पर बल दे रहे हैं। कबीर के मतानुसार आत्मा और परमात्मा एक ही है। सांसारिक विषयों के सम्पर्क में आकर जीवात्मा स्वयं को परमात्मा से भिन्न समझ बैठती है और स्वयं को नाशवान समझते हुए मृत्यु के भय से दु:खी रहती है। इसी तथ्य को कबीर ने नलिनी और सरोवर के प्रतीकों द्वारा इस पद में स्पष्ट किया है।

व्याख्या – (सामान्य अर्थ) “अरी ! कमलिनी तू क्यों मुरझाई हुई है?” तेरे नाल (डंडी) में तो तालाब का जल विद्यमान है। जल मिलते . रहने पर भी तेरे कुम्हलाने का क्या कारण है? हे कमलिनी ! तेरी उत्पत्ति जल में ही हुई है और तू जल में ही सदा से निवास कर रही है। कभी इससे अलग नहीं हुई है, निरंतर जल में रहते हुए भी तेरे मुरझाने का क्या कारण है। न तो तेरा तला तप रहा है न ऊपर से कोई आग तुझे तपा रही है। यह बता कि तेरा किसी से प्रेम तो नहीं हो गया है। जिसके वियोग के दु:ख से तू मुरझा रही है। कबीर कहते हैं कि जो ज्ञानी पुरुष अपने भीतर के और बाहर के जल की एकता का ज्ञान रखते हैं। वे हमारे मतानुसार कभी मृत्यु के भय से पीड़ित नहीं होते। आत्मा की और परमात्मा की एकता जानने और मानने वाला कभी मृत्यु से भयभीत नहीं होता।

(प्रतीकार्थ) हे जीवात्मा ! तू इतनी दु:खी क्यों है ? तेरा मन मुरझाया हुआ सा क्यों हो रहा है। तू प्रतिपल परब्रह्म के संपर्क में रहती है। तेरी उत्पत्ति परमात्मा से ही हुई है और तू सदा परमात्मा के मध्य ही स्थित रहती है। कोई भी सांसारिक दु:ख (ताप) तुझे कष्ट नहीं पहुँचा सका।लगता है तू उस परब्रह्म से भिन्न किसी और के प्रति (सांसारिक विषयों में) आसक्त है। इसके अतिरिक्त तेरे दु:खी होने का और क्या कारण हो सकता है ? कबीर का कहना है कि कमलदण्ड में स्थित जल और सरोवर का जल जैसे एक है, उसी प्रकार आत्मा और परमात्मा भी अभिन्न है। इस तत्व को जो ज्ञानी लोग जान चुके हैं वे स्वयं को अजर-अमर मानते हुए, मृत्यु के भय से सदा मुक्त रहते हैं।

विशेष –

  1. कबीर ने अन्योक्ति के माध्यम से आत्मा और परमात्मा की तात्विक एकता के सिद्धान्त को सरल भाषा और सुपरिचित प्रतीकों द्वारा व्यक्त किया है।
  2. पद में नलिनी जीवात्मा को और जल परमात्मा का प्रतीक है।
  3. जब तक आत्मा सांसारिक विषयों पर आसक्त रहती है। वह स्वयं को नाशवान समझते हुए दु:खी रहती है। जब उसे परब्रह्म से नित्य एकता का ज्ञान होता है तो सारे कष्टों से मुक्त हो जाती है, यह सत्य प्रकाशित किया गया है।
  4. सम्पूर्ण पद में रूपकातिश्योक्ति अलंकार है। इसके अतिरिक्त अनुप्रास तथा अन्योक्ति अलंकार भी है।
  5. भाषा सधुक्कड़ी या पंचमेल है और शैली प्रतीकात्मक है।

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