कठिन शब्दार्थ – टाटी = टटिया, टाटा का परदा।उड़ाणी = उड़ गईं। हित चित = चित्त की दो अवस्थाएँ, (विषयों में आसक्ति और बाहरी आचरण), द्विविधि या अनिश्चय की अवस्था। थूनि = खम्भा। गिरानी = गिर गई। बलींडा = बल्ली (छाजन को साधने वाला बीच का बेड़ा)।त्रिस्ना = तृष्णा, चाह। छाँनि = छप्पर।कुबुधि = कुबुद्धि, कुविचार।भाँडा = बर्तन।जोग जुगति = योग की युक्ति, सोच-विचार, योग साधना।निरचू = निश्चिंत, बेफिक्र।चुवै = चूना, टपकना। पाणीं = पानी।कूड़ = कूड़ा, छल-कपटे।काया = शरीर और मन। निकस्या = निकल गया। हरि की गति = ईश्वर का स्वरूप या कृपा।बूढ़ा = उमड़ा या बरसा। जने = भक्त। भीना = भीग गया, मग्न हो गया। भांन = सूर्य, ज्ञान।तम = अंधकार, अज्ञान।षीनाँ = क्षीण, नष्ट।
संदर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित कबीर के पदों से लिया गया है। इस पद में कबीर मनुष्य के हृदय में ज्ञान का उदय होने पर, उसके समस्त दुर्गुणों के नष्ट हो जाने का उल्लेख कर रहे हैं।
व्याख्या – कबीर कहते हैं। हे संतो ! हमारे अंतर्मन में ज्ञान की आँधी आई हुई है। इस आँधी ने हमारे मन की भ्रमरूपी टटिया को उड़ा दिया है। माया बंधन भी उसे रोक नहीं पा रहे हैं। भाव यह है कि ज्ञानोदय होने पर हमारे मन का भ्रम और माया का प्रभाव समाप्त हो गया है। हमारे मनरूपी घर पर तृष्णारूपी छप्पर पड़ा था और द्विविधा या अनिश्चयरूपी दो खम्भे इसे साधे हुए थे। ज्ञान की प्रबल आँधी ने इनको गिरा दिया है। इससे इन खम्भों पर टिकी हुई मोहरूपी बल्ली भी टूट गई है। भाव यह है कि ज्ञानोदय होने से हमारे मन की द्विविधा और मोह भी नष्ट हो गया।
यह बल्ली के टूटते ही तृष्णारूपी छप्पर (छान) भी गिर पड़ी और वहाँ स्थित कुबुद्धि रूपी सारे बर्तन, भाँड़े फूट गए अर्थात् सारे कुविचार नष्ट हो गए। हे संतो ! अबकी बार हमने घर पर संतोषरूपी नया छप्पर बड़े यत्न से ढका और बाँधा है। अब हम पूर्णत: निश्चिन्त हैं, क्योंकि अब इसमें से एक बूंद भी वर्षा का पानी नहीं टपक सकता अर्थात् सांसारिक विषय विकार अब हमारे हृदय को लेश मात्र भी प्रभावित नहीं कर सकते। मन में ज्ञान के आगमन से मुझे हरि’ के स्वरूप का ज्ञान हो गया है और मन . का सारा कूड़ा-करकट (दुर्गुण) साफ हो गया है। ज्ञानोदय के पश्चात् मेरा भक्त हृदय प्रभु प्रेम की वर्षा में भीग ग.. है। ज्ञानरूपी सूर्य के उदय से अज्ञानरूपी अंधकार पूर्णतः नष्ट हो चुका है।
विशेष –
- स्वभाव के दुर्गुणों से मुक्ति पाने का कबीर एक ही उपाय मानते हैं, वह है हृदय में ज्ञान-सूर्य का उदय होना। ज्ञान के आने पर किस प्रकार सारे विकार एक-एक करके विदा हो जाते हैं। यही इस पद में कबीर ने वर्णित किया है।
- कबीर स्वयं को राम की दुलहिन और परमात्मा की विरहिणी के रूप में प्रस्तुत करते हैं साथ ही वह प्रेम और भक्ति के साथ ज्ञान का प्रकाश भी आवश्यक मानते हैं। ज्ञानी अर्थात् निर्मल हृदय भक्त ही परमात्मा की कृपा का पात्र हो सकता है। एद में यही संकेत है।
- पद में सांगरूपक, रूपक तथा अनुप्रास अलंकार है।
- प्रतीकात्मक शैली का भी प्रयोग हुआ है।
- भाषा में तद्भव शब्दों का प्रयोग है और साहित्यिक झलक विद्यमान है।