उक्ति वैचित्र्य का अर्थ होता है, बात को कुछ विचित्र या असाधारण रूप से कहना ताकि श्रोता या पाठक उसे सुनकर या पढ़कर चकित और मुग्ध हो जाय। उक्ति वैचित्र्य का यह खेल, संकलित दोहों में अनेक स्थानों पर उपस्थित है। “हरि न बनाओ सुरसुरी, कीजौ इन्दव भाल” इस पंक्ति में कवि ने भगवान शिव में अपनी आस्था सीधे-सीधे व्यक्त नहीं की है, लक्षणा और व्यंजना की सहायता लेने पर ही भाव का आनन्द प्रकट होता है। इसी प्रकार ‘विपति-कसौटी पर कसे गए ‘मीत’ भी कवि की वाक्-कुशलता का परिचय करा रहे हैं। ‘खैर, खून, खाँसी …..सकल जहान’।। दोहा जहाँ कवि के अनुभव की व्यापकता दिखा रहा है वहीं ‘दाबे ना दबै’ वचन वक्रता का नमूना भी पेश कर रहा है। इसी प्रकार ‘काटे-चाटे स्वान के’, ‘टूटे से फिर ना जुड़े’, ‘पानी गए न ऊबरै’ तथा ‘बिगरी बात बनै नहीं’ आदि उदाहरण उक्ति वैचित्र्य में कवि की प्रवीणता का परिचय करा रहे हैं।