पाठ्यपुस्तक में संकलित घनानंद के छंदों के आधार पर उनकी काव्य-कला की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं कला पक्ष-भाषा-शैली-कवि ने ब्रजभाषा के मानक स्वरूप का प्रयोग करते हुए, भाषा की सामर्थ्य से ब्रजभाषा प्रेमियों की प्रशंसा अर्जित की है। घनानंद ब्रज भाषा के मर्मज्ञ हैं। भाव प्रकाशन के लिए आवश्यक सटीक शब्द उनकी वाणी में स्वयं खिंचे चले आते हैं। कवि ने ब्रज भाषा के मुहावरों का तथा लोकोक्तियों का कलात्मक रूप से प्रयोग किया है। कुछ उदाहरण दर्शनीय हैं ‘प्राने घट घोटिबौ’, ‘आगे उर ओटिबो’, ‘अँगारन पे लोटिबौ’, “लागी हाय-हाय है’, ‘जिय जारत’, ‘टेक गहै’, ‘प्यासनि मारत’ आदि मुहावरे तथा काहू कलपाय है, से कैसे कल पाय है। ‘अति सूधौ सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं। कवि की कथन शैली भाव प्रधान है। मन की कोमल भावनाओं को प्रभावी रूप से प्रकाशित करने में कवि सफल है। रस, छंद तथा अलंकार-घनानंद की रचनाओं का प्रधान रस वियोग श्रृंगार है। वियोग की सभी अवस्थाएँ तथा अनुभाव इन छंदों में उपस्थित हैं।
कवि ने कवित्त तथा सवैया छंदों का सफल निर्वाह किया है। छंदों में गेयता और सहज प्रवाह है। कवि अलंकारों के चमत्कार प्रदर्शन से बचा है। अनुप्रास, रूपक, यमक आदि अलंकार सहज भाव से आते रहे हैं। भाव पक्ष-कवि का भावपक्ष ही काव्य रसिकों को मुग्ध करता रहा है। निरंतर विरह की गाथाएँ सुनते हुए भी पाठक या श्रोता ऊबता नहीं है। कवि ने वियोग की अनेक अवस्थाओं को शब्दों में उतारा है। कवि के भाव-प्रकाशन में कातरता है, अश्रु प्रवाह है, दीन उचित है, हाय-हाय है, उपालम्भ है और व्यंग्य तथा शाप भी है। इस प्रकार कवि घनानंद की काव्य कला में प्रौढ़ता और मार्मिकता दोनों का सुखद संतुलन मिलता है।