रीतिकाल के कवियों में पद्माकर का महत्वपूर्ण स्थान है। आपकी काव्य उत्कृष्ट कोटि का है। सहृदयता तथा सजीव कल्पना की दृष्टि से उनका काव्य उत्तम है। कवि ने युगीन परिस्थितियों से समझौता न कर अपने काव्य में स्वाभाविकता का ध्यान रखा है। श्रृंगार के साथ कवि ने वीर रस की रचनाएँ भी की हैं। आपने अपने भक्ति-सम्बन्धी काव्य में राम, कृष्ण तथा शिव तीनों को ही स्थान दिया है। गोपियाँ श्रीकृष्ण के साथ होली खेलना चाहती हैं। एक गोपिका के श्रीकृष्ण के साथ होली खेलने के चित्रण में श्रृंगार रस का भव्य वर्णन मिलता है
फागु को भीर, अबीरन की भई, गोविन्द ले गई भीतर गोरी।
पाई करी मन की पद्माकर ऊपर नाइ अबीर को झोरी
छीन पिताम्बर कम्बर ते सु विदा दई मींड़ि कपोलन रोरी।
नैन नचाइ कही मुसकाय, लला फिर अईयो खेलने होरी।।
पद्माकर के काव्य में भक्ति का चित्रण मिलता है। उनके ‘प्रबोध पचासा’ तथा ‘गंगा लहरी’ में कवि का भक्तिरूप दिखाई देता है। गंगा जल के पान करने को कवि ने धर्म का मूल माना है –
“धर्म मूल गंगा-जल बिन्दु पान करिबौ”
अपने जीवन में इंश्वर-भक्ति पर ध्यान न देने पर कवि ने पश्चाताप व्यक्त किया है –
है क्षिर मंदिर में न रह्यौ, गिरी कंदर में न तप्यौ तप जाई
राज रिझाये न कै कविता, रघुनाथ कथा न यथामति गाई।
राम और कृष्ण के प्रति कवि ने गहरी श्रद्धा व्यक्त की है। पद्माकर ने अपने समकालीन कवियों की भाँति ब्रजभाषा में ही काव्य रचा है। आपकी भाषा पर पाण्डित्य का बोझ नहीं है तथा वह सरस, सरल और मधुर है। आपके काव्य में अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग मिलता है। आपने अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, संदेह, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों को अपने काव्य में स्थान दिया है। आपने मुक्तक काव्य रचा है तथा सवैया, कवित्त आदि छंदों में रचना की है।