शब्दार्थ – विधि = ब्रह्मा। गिरीस = शिवजी। मंडन = शोभा। माल = माला। अघहर = पापों का नाश करने वाली। जन्हु= ऋषि। छेम = क्षेम, कल्याण। रावरी = आपकी। कहर = कठोर प्रहार। जमजाल = यमराज का पाश। जहर = विष, काटने वाली।
सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘गंगा स्तुति’ शीर्षक कविता से लिया गया है। इसके रचयिता कवि पद्माकर हैं। गंगा भारत की प्रसिद्ध नदी है। गंगा को पाप विनाशिनी तथा मुक्तिदायिनी कहा जाता है। कवि ने इस पंक्ति में माता गंगा की स्तुति की है।
व्याख्या – कवि पद्माकर कहते हैं कि यह प्रसिद्ध है कि गंगा ब्रह्मा जी के कमण्डलु से निकलने वाली सिद्धि है। उसमें भगवान विष्णु के चरण-कमलों के प्रताप जैसी लहरें आती हैं। कैलाशपति शिव शंकर को सुशोभित करने वाली माला यह गंगा ही है। गंगा पापों का हरण करने वाली है। राजा भगीरथ के रथ से निर्मित होने वाला पवित्र मार्ग गंगा ही है। यह जन्हु ऋषि की योग-साधना के सुन्दर फल का फैला हुआ विस्तार है। कवि गंगा को सम्बोधित करते हुए कहता है कि हे गंगा, आपकी लहर सबका कल्याण करने वाली है। वह कलियुग के ऊपर प्रबल प्रहार करने वाली है तथा यमराज के पाश को काटने वाली है।
विशेष –
- पौराणिक मान्यता के अनुसार राजा भगीरथ गंगा को स्वर्ग से धरती पर लाए थे। आगे-आगे उनका रथ था और पीछे-पीछे गंगा प्रवाहित होती थी।
- गंगा का उद्गम ब्रह्माजी के कमण्डल तथा भगवान विष्णु के चरणों से माना जाता है।
- गंगा को शिवजी अपनी जटाओं में धारण करते हैं।
- अनुप्रास तथा रूपक अलंकार है।
- ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।