शब्दार्थ – जमपुर = यमलोक। केवारे = किवाड़। सुखारे = आसान। कतारे = पंक्ति। उतारे = पार करना। तारे = उद्धार। तारे = नक्षत्र।।
सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘गंगा-स्तुति’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता कवि पद्माकर हैं। कवि गंगा माता की स्तुति कर रहा है तथा कह रहा है कि आप पतित पावनी हैं। आपने संसार में असंख्य जनों का उद्धार किया है।
व्याख्या – कवि कहता है कि माता गंगा पापनाशिनी है। पापियों का उद्धार करने का वह प्रण धारण किए हुए है। आम लोग उसके कारण देवलोक अर्थात् स्वर्ग को प्राप्त करते हैं तथा यमलोक जाते ही नहीं हैं। यमलोक के दरवाजों पर किवाड़ लगे रहते हैं। उस लोक का कोई रखवाला नहीं है तथा वह उजाड़ हो रहा है। श्रेष्ठजनों के लिए तो पुण्य कर्म आसान हैं, किन्तु गंगा की कृपा से पतितजनों की कतारें अर्थात् पतितों की विशाल संख्या का भी इस जगत् से उद्धार हो जाता है। जिन पापियों का उद्धार किसी देवी-देवता ने नहीं किया है उनको गंगा माता तार देती है। आकाश में जितने तारे हैं, गंगा माँ की कृपा से उतने ही असंख्य जनों का उद्धार हुआ है।
विशेष –
- सरस, साहित्यिक ब्रजभाषा है।
- गंगा की पापियों का उद्धार करने की विशेषता का वर्णन हुआ है।
- अनुप्रास तथा यमक अलंकार हैं।
- कवित्त छंद है।