शब्दार्थ – कूरम = कूर्म, कछुआ। कोल = सूअर, वाराह। सेस = शेषनाग। फबी = सुशोभित। फैल = शोभा। थिति = स्थिति। रजत पहार = कैलाश पर्वत। संभु = शिव। जटाजूट = बालों की लटें। छटा = शोभा।
सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘गंगा-स्तुति’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता कवि पद्माकर हैं। कवि ने गंगा की छवि का वर्णन किया है। कैलाश पर्वत पर सुरनायक शिव का निवास है। उनके जटाजूट में स्थित गंगा अत्यन्त शोभा पा रही है।
व्याख्या – कवि पद्माकर कहते हैं कि कछुए पर वाराह, वाराह पर शेषनाग की कुण्डली तथा शेषनाग की कुण्डली पर उसके हजार फनों की शोभा फैली हुई है। शेषनाग के फन पर यह धरती सुशोभित हो रही है। धरती के ऊपर स्थित कैलाश पर्वत की शोभा व्याप्त है। कैलाश पर्वत पर देवाधिदेव शिवजी सुशोभित हैं। शिवजी के सिर पर उनके बालों की लम्बी लटें शोभा पा रही हैं। शिवजी की जटाओं में चन्द्रमा की छटा फैली हुई है। चन्द्रमा की किरणों पर गंगा की धारा की शोभा छाई हुई है। आशय यह है कि गंगा की शोभा सर्वश्रेष्ठ तथा सर्वाधिक आकर्षक है।
विशेष –
- धरती कछुए की पीठ पर टिकी है। इसको वाराह (सूअर) के मुख तथा शेषनाग के फन पर टिका हुआ भी माना जाता है। ऐसी ही पौराणिक मान्यता है।
- कवि ने गंगा की शोभा को शोभायमान वस्तुओं में सर्वश्रेष्ठ माना है। गंगा शिव की जटाओं से निकलती है।
- शुद्ध साहित्यिक सरस ब्रजभाषा है।
- अनुप्रास अलंकार है।