शब्दार्थ – कैध = अथवा। तिहुँ = तीन । सिंगार = शृंगार। विसाल माल = बड़ी माला। जमाति = समूह। सुर-सिंधु = गंगा। कामधेनु = समुद्र मंथन में प्राप्त गाय। जलूस = शोभा यात्रा। राका-पति = चन्द्रमा। पताका = झण्डा।
सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘गंगा स्तुति’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता रीतिकालीन कवि पद्माकर हैं। कवि पद्माकर गंगा की स्तुति कर रहे हैं। कवि ने गंगा के श्रृंगार में काम आने वाली पुष्पमाला, कामधेनु के दूध की धार, राजा भगीरथ की शोभा-यात्रा, पुण्य की पताका इत्यादि उपमानों से तुलना की है।
व्याख्या – कवि पद्माकर कहते हैं गंगा तीनों लोकों के श्रृंगार के काम में आने वाली पुष्पमाला है अथवा वह संसार में सुशोभित तीर्थस्थान का समूह है। गंगा की धारा कामधेनु के थनों से निकलने वाली दूध की धार की तरह लगती है अथवा ऐसा लगता है जैसे गंगा राजा भगीरथ के यश की निकलती हुई शोभायात्रा है अथवा ऐसा प्रतीत होता है कि ऋषि जन्हु की तपस्या गंगा का रूप धारण कर धरती पर प्रगट हुई है अथवा वह विस्तृत क्षेत्र में फैली हुई चन्द्रमा की चाँदनी है। पृथ्वी पर फहराती हुई पुण्य समूहों की ध्वजा है।
विशेष –
- कवि ने गंगा की स्तुति करते हुए उसके लिए विभिन्न उपमानों का उल्लेख किया है।
- कवि को गंगा का दर्शन विविध रूपों में हो रहा है।
- सरस, सजीव ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।
- अनुप्रास तथा संदेह अलंकार हैं। कवित्त छन्द है।