शब्दार्थ – करम = कर्म, काम। धरिबो = धारण करना। भौन = भवः घर। भौन भरिबो = सम्पन्नता और सुख देना। मेघ = बादल। जज्ञ = यज्ञ। अनुसरिबो = पालन करना। बिन्दु = बूंद। पान करिबो = पीना।
सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित कवि पद्माकर रचित ‘गंगा स्तुति’ कविता से उद्धृत है। इस पद्य में कवि ने गंगा का महत्व बताकर उसकी स्तुति की है। उसने कहा है कि गंगा के जल को पीना धर्म का मूल तत्व है।
व्याख्या – कवि पद्माकर कहते हैं कि संसार में कर्म का आधार शरीर है। शरीर का आधार प्राणी है। जीवों का उद्देश्य अनन्द को प्राप्त करना है। राज्य आनन्द का मूल साधन है। राज्य का मूल प्रजा का घर भरना है। आशय यह है कि राजा का कर्तव्य प्रजा को सुख-सम्पन्नता प्रदान करना है। प्रजा का कर्तव्य है अन्न पैदा करना तथा अन्न बादलों के कारण अर्थात् बादलों द्वारा पानी बरसाने से उत्पन्न होता है। बादल के मूल में यज्ञ करना है अर्थात् बादल यज्ञ करने से उत्पन्न होते हैं। यज्ञ करने के लिये धन आवश्यक है। धन से। धर्म होता है। धर्म गंगा के जल को पीने से होता है।
विशेष –
- सरस तथा प्रवाहपूर्ण ब्रजभाषा है।
- अनुप्रास अलंकार है। कवित्त छन्द है।
- गंगा की महत्ता बताई गई है। गंगाजल का पान करना धर्म को मूल है।
- अन्न मूल मेघ। मेघन को मूल एक जज्ञ अनुसरिबो पर भगवद्गीता का प्रभाव है। भाव साम्य-यज्ञात् भवति धर्मजन्यः, पर्यजन्यात् वृष्टि संभवः।