शब्दार्थ – प्राणों का पण = जीवन का बाजार अर्थात् युद्ध भूमि। रण = युद्ध। क्षात्र-धर्म = क्षत्रिय का कर्तव्य।
सन्दर्भ तथा प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित “यशोधरा’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। यशोधरा को पीड़ा इस बात की है कि उसके पति सिद्धार्थ ने उसको गृह-त्याग के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं बताया । यदि वह उसको बताकर जाते तो वह उनको जाने के लिए स्वयं ही कह देती।
व्याख्या – यशोधरा ने अपनी सखी से कहा-हम क्षत्राणियाँ हैं। जब स्वदेश की रक्षा के लिए युद्ध का आह्वान होता है, तो हम स्वयं अपने प्रिय पतियों को अस्त्र-शस्त्र से सजाकर युद्ध भूमि के लिए विदा करती हैं। उसमें थोड़ा भी विलम्ब नहीं होता। युद्ध भूमि में प्राणों का बाजार सजा होता है। किन्तु हम क्षत्रिय नारियों का जो कर्तव्य है, उसके पालन में देर नहीं करर्ती। काश ! वह मुझसे कहकर जाते। मुझे उन्होंने यह सौभाग्य भी प्रदान नहीं किया। मुझे तो अपने क्षत्राणी-धर्म के पालन करने पर गर्व करने की अवस्था भी प्राप्त नहीं हुई। कभी जिसने मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में अपनाया था, अब उसने ही मुझको त्याग दिया है। अब तो मेरी यही कामना है कि वह मुझको याद आते रहें। हे सखि, यदि वे मुझसे बताकर जाते तो मुझे इतना दु:ख न होता।
विशेष –
- कवि ने यशोधरा की मार्मिक व्यथा का सजीव चित्रण किया है।
- वियोग शृंगार रस है। अनुप्रास तथा रूपक अलंकार है।
- गीति शैली है।
- भाषा संरल, सरस तथा विषयानुकूल है।