शब्दार्थ – सिद्धि = सफलता। इस जन = यशोधरा। उपालम्भ = उलाहना। भाते = अच्छे लगते हैं।
सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘यशोधरा’ शीर्षक कविता से उद्धृत है। इसके रचयिता राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त हैं।
प्रसंग – यशोधरा अपने पति सिद्धार्थ के घर छोड़ जाने के कारण ब्रहुत दु:खी है। वह अपनी सखी से अपने मन के दु:ख के बारे में बातें कर रही है। उसको आशा है कि भविष्य में कभी उसके पति उसको अवश्य दर्शन देंगे।
व्याख्या – यशोधरा कहती है-हे सखि, मेरे पति चले जाएँ, मैं उनको नहीं रोकेंगी। वह सुख पावें और अपने लक्ष्य को पाने में सफल हों वह मेरे बारे में सोचकर अपने मन में दुःखी नहीं हों। मैं उनसे कोई उलाहना नहीं दे रही। मुझे तो आज वह पहले से भी अधिक प्रिय लगते हैं, अच्छा होता वह मुझसे कहकर जाते। वह चले तो गए हैं, किन्तु मुझे विश्वास है कि वह पुनः आयेंगे। जब वह आयेंगे तो अपने साथ अपनी अनोखी उपलब्धि, अपनी सिद्धि भी लायेंगे। आज मैं उनके विरह में आँसू बहा रही हैं किन्तु उनसे मिलकर मेरा कष्ट मिट जायेगा और मैं गा-गाकर उनका स्वागत-सत्कार करूंगी। हे सखि, यदि वह मुझसे कहकर जाते तो कितना अच्छा होता ।
विशेष –
- यशोधरा के विरह का मार्मिक चित्रण कवि ने किया है।
- विरह शृंगार रस है। पुनरुक्ति तथा अनुप्रास अलंकार हैं।
- गीतिकाव्य है।
- भाषा सरल, सरस तथा विषयानुरूप है। भारत की श्रेष्ठता