द्वन्द्व शक्तियों के मध्य होने वाला संघर्ष होता है। जब मनुष्य के मन में दो परस्पर विरोधी विचार और भावों का उदय होता है तो अपना अस्तित्व प्रमाणित करने के लिए उनमें संघर्ष होता है। यह संषर्ष मन के अन्दर होने के कारण इसको अन्तर्द्वन्द्व कहते हैं। मनुष्य का विवेक उसको सन्मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करता है किन्तु लोभ-लालसा, काम, क्रोध आदि मनोविकार उसको असत्य, की ओर ले जाना चाहते हैं।
यदि मनुष्य सदाचारी और विवेकशील होता है, तो वह इन विकारों से मुक्त होकर सत्य का मार्ग ही ग्रहण करता है। ‘राम की शक्तिपूजा’ में राम के मन के द्वन्द्व का चित्रण हुआ है। सीताहरण के बाद रावण के अभद्रता से कुपित राम उसको दण्डित करना चाहते हैं। वह उत्साह के साथ सैन्य संगठन करते हैं किन्तु रावण के साथ महाशक्ति दुर्गा को देखकर उनका उत्साह नष्ट हो जाता है। वह निराश हो जाते हैं। उनकी निराशा इतनी बढ़ती है कि उनके नेत्रों से आँसू टपकने लगते हैं। स्पष्ट कहते हैं – ‘विजय होगी न, समर ‘‘यह नहीं रहा नर वानर का राक्षस से रण” जाम्बवान के परामर्श से राम के हृदय की निराशा दूर होती है। उनमें पुनः आशा का संचार होता है तथा वह शक्ति की पूजा कर उससे विजय का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। वह अपने जीवन तथा साधनों को धिक्कारते। हैं किन्तु अन्त में उनके मन में अपने शक्ति पर विश्वास उत्पन्न होता है। इस प्रकार राम की शक्तिपूजा में राम के अन्तर्द्वन्द्व का सफलतापूर्वक चित्रण हुआ है।