और इस तरह उन्होंने मुझे माफ कर दिया मैं और अजय दोनों मित्र थे। दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे। अजय जहाँ समृद्ध परिवार से था वहीं मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। ऐसा होने पर भी मैं बहुत स्वाभिमानी लड़का था। किसी के आगे हाथ पसारना पसंद नहीं था। मैं पढ़ाई में होशियार होने के साथ खेलकूद में भी हमेशा आगे रहता था। मैं अपने विद्यालय की क्रिकेट टीम का उपकप्तान था। दूसरों की हर संभव सहायता करना मेरी आदत थी। वैसे तो मेरे अनेक मित्र थे परंतु अजय मेरा सबसे प्रिय मित्र था।
मेरे माता-पिता एक कारखाने में काम करते थे। एक दिन कारखाने में काम करते हुए पिता दुर्घटनाग्रस्त हो गए। उनका दायाँ हाथ मशीन में आ गया। डॉक्टर ने बताया कि हाथ को ठीक होने में तीन-चार महीने का वक्त लगेगा। इसलिए तुम्हें तीन महीने घर पर रहकर आराम करना पड़ेगा। इसी विवशता के कारण वे नौकरी पर नहीं जा रहे थे।
पिता के वेतन के अभाव में घर की आर्थिक स्थिति और भी बिगड़ गई। अब घर का खर्च केवल मेरी माता के वेतन पर ही चलता था। वार्षिक परीक्षा निकट आ गई। अंतिम सत्र की फ़ीस तथा परीक्षा शुल्क जमा करना था पर मैं असमंजस में था कि करूँ तो क्या करूँ।
एक दिन कक्षा अध्यापिका ने मुझे अपने कक्ष में बुलाया और अंतिम तिथि तक फ़ीस न जमा करवाने की बात कही। ऐसी स्थिति में परीक्षा में न बैठने तथा विद्यालय से नाम काटने की चेतावनी भी दे डाली। मैं चिंतित हो उठा। अपनी विवशता किसे बताता। मैं हर हाल में परीक्षा में बैठना चाहता था। दो दिन और रातों के चिंतन ने मेरे अंदर अपराधी पैदा कर डाला और मैं अजय की दादी की अंगूठी चुरा लाया, जो ड्रेसिंग टेबल में बेकार-सी पड़ी रहती थी। सोचा कि इतना सोना बेच कर फीस दे दूंगा और अमीर अजय को कुछ अंतर भी नहीं पड़ेगा। मैं अगले दिन अँगूठी बेचने का निश्चय करके विद्यालय गया। सोचा था कि छुट्टी के बाद बेचूंगा। परन्तु कक्षा में बैठते ही कक्षा अध्यापिका ने मुझ से कहा – “रवि, चिंता न करना। तुम्हारी फ़ीस जमा हो गई है। तुम्हारे मित्र अजय ने तुम्हारी सहायता की है। इसे धन्यवाद दो।”
मैं अंदर तक काँप उठा। यह क्या हो गया? मैं स्वार्थवश ऐसा अपराधी क्यों बन गया? अब क्या करूँ? सोचते-सोचते छुट्टी हो गई। सीधा अजय के घर गया। दादी के चरणों में गिर कर क्षमा माँगी और अपना अपराध कह डाला। उदार हृदय वाले उस परिवार के सारे सदस्यों ने मुझे तुरंत माफ़ कर दिया।