भारत विविध संस्कृतियों, संप्रदायों एवं भाषाओं का देश है। यहाँ अनेक प्रकार के उत्सव और त्योहार मनाए जाते हैं। वसंतोत्सव, होली, वैसाखी, ईद, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, गांधी जयंती, बाल दिवस, दशहरा, दीपावली, ओणम, पोंगल, गुरुपर्व, रक्षाबंधन, बड़ा दिन (क्रिसमस) आदि अनेक ऐसे त्योहार हैं जिनका संबंध संस्कृति, धर्म, देश या देश के महापुरुषों के साथ है। इन उत्सवों का आयोजन अलग-अलग ढंग से किया जाता है।
आज के भौतिकवादी युग में राष्ट्रीय महत्त्व के त्योहारों को छोड़ दिया जाए तो लगभग सभी त्योहारों का रूप-स्वरूप बदल रहा है। नगरीकरण, व्यवसायीकरण, मशीनीकरण आदि संस्कृतियों ने अपना रंग जमाना शुरू कर दिया है। हमारे परंपरागत त्योहार भी इस प्रकार की पाश्चात्य संस्कृति की चपेट में आते जा रहे हैं।
सबसे पहले रक्षाबंधन की बात की जाए। अभी कुछ वर्ष पूर्व यह एक सादा एवं पवित्र त्योहार था। भाई-बहन का रिश्ता दुनिया में सब रिश्तों से ऊपर है। इस रिश्ते को रक्षाबंधन के दिन सूत (धागा) बाँधकर और सुदृढ़ करने की परंपरा निभाई जाती थी। परंतु आज के व्यवसायिक युग में इसका स्वरूप ही बदल गया है। उत्पादकों, वितरकों, विज्ञापनों तथा केवल टी. वी. के चैनलों के कारण इस पवित्र त्योहार में चकाचौंध, प्रदर्शन और कृत्रिमता का समावेश हो रहा है। जहाँ घर में पड़े एक धागे और गुड़ से काम चल जाता था वहाँ अब एक-दूसरे में बढ़कर खर्च करने की भावना पनप रही है। एक रुपए से लेकर एक लाख तक की राखियाँ बाज़ार में तरह-तरह के वर्ग के लोगों को लुभा रही हैं। सौ रुपए से लेकर दो हज़ार तक के मूल्य के मिठाई के डिब्बे उपलब्ध हैं। बहनें भी कम नहीं। वे भी भाइयों को आधुनिक ढंग से लूटने लगी हैं।
क्रिसमस, दीपावली, दशहरा, गुरुपर्व आदि उत्सवों को मनाने के ढंग भी बदल चुके हैं। नगरतोरण बनाए जाते हैं, फ्लैक्स बनाकर टाँगे जाते हैं और झंडे, सजावटी प्रकाश, नगर कीर्तन, शोभा यात्रा, दान-दक्षिणा या लंगर वितरण आदि की बात ही क्या। धनी लोग अपने घरों पर सजावटी प्रकाश करने में हज़ारों-लाखों खर्च कर देते हैं। पटाखों तथा दूसरे प्रकार की आतिशबाजी खर्चीली, भड़कीली और यांत्रिक होती जा रही है। ऐसे त्योहारों पर अरबों खर्च होने लगे हैं।
आज दिखावा अधिक होने लगा है। पास धन हो या न हो, प्रदर्शन करना आवश्यक है। लोग उधार लेकर उपहारों का आदान-प्रदान करने लगे हैं। प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी है।
नववर्ष, होली, वसंतोत्सव आदि की तो बात ही दूसरी है। पहले हमारे पूर्वज घरों में बने व्यंजनों तथा उपकरणों तक सीमित रहते थे और आनंदपूर्वक इन उत्सवों का आनंद लेते थे। आज वह गई बीती बात हो चुकी है। नववर्ष के संदर्भ में अनेक विज्ञापन पहले ही आने शुरू हो जाते हैं। क्लबों, होटलों, सभाओं, समितियों, आमोद-केद्रों की ओर से अपने-अपने ढंग से नववर्ष की पूर्व-संध्या के कार्यक्रमों की घोषणा होने लगती है। युवावर्ग विशेष रूप से इस संस्कृति की ओर आकृष्ट होता है। पहले लोग अपने घरों में ही ऐसे अवसरों का आनंद लेते और एक-दूसरे को शुभकामनाएँ देते थे। आज ऐसे व्यावसायिक केंद्रों में हज़ार रुपये से लेकर लाख रुपये तक के टिकट से प्रवेश पाने का प्रावधान होता है और सनक से भरे वहाँ जाने से नहीं चूकते। नृत्य, मदिरा, नग्नता आदि का सहारा लेकर ऐसे व्यवसायी लोगों को खूब लूटने लगे हैं।
उपहारों, संदेशों, खाद्यानों और व्यंजनों पर खूब पैसा बहाया जाता है। लोग पदोन्नति के लोभ में अपने अधिकारियों को प्रसन्न करने के लिए अपनी सामर्थ्य से भी बढ़कर उपहार देते हैं। घरों में बच्चों और स्त्रियों की मानसिकता भी बदल रही है। वे भी ऐसे उत्सवों पर नए वस्त्रों, उपकरणों और वाहनों की माँग करने लगी हैं। जन्मदिनों पर मध्यवर्ग का भरसक शोषण होता है।
उत्सवों में बढ़ती जा रही इस अंधाधुंध व्यावसायिकता को हम सब ही रोक सकते हैं। यवावर्ग को इसके लिए आगे आना चाहिए। वे ऐसे उपभोक्तावादी दृष्टिकोण पर नियंत्रण पाएँगे, तो ही उनका भविष्य उज्ज्वल हो पाएगा।