इसमें कोई भी संदेह नहीं कि विद्यालय के प्रधानाध्यापक का पद बहुत ही आदरणीय और उत्तरदायित्वपूर्ण होता है। गंभीरता से सोचा जाए तो यह पद एक निर्माता का पद है जिसमें गरिमा का उत्कर्ष पाया जाता है। पूरा विद्यालय इस पद पर आसीन व्यक्ति की कार्यकुशलता, कर्मठता एवं दूरदर्शिता पर निर्भर करता है। विद्यालय के रूप, स्वरूप तथा गुणवत्ता में उसके प्रधानाचार्य की झलक दिखाई देती है। अच्छा शिक्षाशास्त्री व प्रशासक ही इस पद को सुशोभित कर सकने में समर्थ होता है। वह अपने आदर्श व्यक्तित्व द्वारा समूचे विद्यालय के परिवेश को गरिमा प्रदान करते हुए महिमामंडित करता है।
यदि मैं अपने विद्यालय के प्रधानाचार्य के पद पर स्वयं को रखकर देखता हूँ, तो मेरे मन व मस्तिष्क में कई कल्पनाएँ आती हैं। मैं सोचता हूँ कि यदि इस पद पर मैं स्वयं होता, तो क्या कुछ ऐसा करना चाहता, जो वर्तमान व्यवस्था में नहीं हो पा रहा। मैं यह भी सोचता हूँ कि कौन-सी ऐसी अव्यवस्थाएँ या अनियमितताएँ हैं, जिन्हें मैं अपने कार्यकाल में नहीं देखना चाहता।
विद्यालय का अस्तित्व मूलतः विद्यार्थियों के आगमन की प्रवृत्ति पर आधारित होता है। मेरे भैया बताया करते हैं कि जब वे इसी विद्यालय में पढ़ा करते थे, तब इसमें आठ सौ से भी ऊपर संख्या में विद्यार्थी पढ़ते थे। आज यह संख्या घटकर पाँच सौ के आसपास रह गई है। मैं सबसे पहले यह संख्या सम्मानजनक स्तर तक पहुँचाना चाहूँगा। इसके लिए विद्यालय की व्यवस्था को आकर्षक बनाया जाएगा तथा विद्यालय भवन की मरम्मत कराई जाएगी।
हमारे विद्यालय में खुले उद्यान जो बेकार पड़े हैं, उन्हें विभिन्न प्रकार के पौधों व फूलों से सुशोभित करूँगा। गरमियों के दिनों में जल की आपूर्ति प्रायः ठप रहती है। बच्चों को ठंडा पानी तो दूर की बात, गरम पानी भी उपलब्ध नहीं होता। मैं विद्यालय में पानी तथा बिजली का उचित प्रबंध करवाऊँगा।
विद्यालय का स्वरूप गुणात्मक बनाने के लिए तीन स्तरों पर परिश्रम व दूरदृष्टि की आवश्यकता होती है-पढ़ाई, खेलकूद तथा सांस्कृतिक पहलू। मैं ऐसे शिक्षकों की नियुक्ति करना चाहूँगा, जो विद्यार्थियों को शिक्षित करने के लिए पूर्णतः प्रशिक्षित हों। वर्तमान अध्यापकों को प्रेरित करूँगा कि वे मन लगाकर विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम को सहज व सरल ढंग से समझाएँ। खेलकूद के लिए अलग-अलग खेलों के लिए प्रशिक्षक रखे जाएंगे। खेलों का सामान भी खरीदा जाएगा। क्रीडा क्षेत्र को समतल बनाकर अभ्यास करवाया जाएगा। सांस्कृतिक कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए कोई श्रेष्ठ, कुशल व निष्ठावान अध्यापक प्रभारी बनाया जाएगा, ताकि विद्यालय पढ़ाई और खेल के साथ-साथ सांस्कृतिक क्षेत्र में भी आगे बढ़े।
मैं पुस्तकालय को समृद्ध करूँगा और वहाँ कंप्यूटर-प्रणाली लागू करूँगा, ताकि विद्यालय तकनीकी क्षेत्र में पिछड़ा न रहे। मेधावी परंतु गरीब विद्यार्थियों, खिलाड़ियों तथा कलाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए आर्थिक, पुस्तकीय व छात्रवृत्ति के रूप में सहायता दी जाएगी। इससे उनकी प्रतिभा में चार चाँद लगेंगे।
विद्यार्थियों को चिकित्सा संबंधी प्राथमिक सहायता देने के लिए प्राथमिक चिकित्सा की उचित व्यवस्था की जाएगी। प्राकृतिक चिकित्सा व व्यायाम के लिए रखे गए अध्यापक को प्रेरित करके इस क्षेत्र की गतिविधियाँ पुनः चालू करवाऊँगा। प्रयोगशालाओं का स्वरूप भी सुधारूँगा ताकि विज्ञान के विद्यार्थी हीन-भावना का अनुभव न करें। इन कार्यों को करने के बाद मेरा विश्वास है कि हमारा विद्यालय नगर के ही नहीं, बल्कि प्रांत के श्रेष्ठ विद्यालयों की सूची में अपना नाम लिखवा सकेगा।
नैतिक मूल्यों की प्रासंगिकता-