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अनुशासित व्यक्ति सुखी और स्वस्थ जीवन जीता है। विवेचन कीजिए।

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यह विचार अक्षरशः सत्य है कि अनुशासित व्यक्ति ही सुखी और स्वस्थ जीवन जीता है। अनुशासन का सामान्य अर्थ है व्यवस्था या आज्ञा के अनुसार चलना। यह शब्द अनु + शासन के योग से बना है। ‘अनु’ का अर्थ है पीछे या अनुसार और ‘शासन’ का अर्थ आज्ञा या व्यवस्था होता है। अतः अनुशासन का अर्थ वश में रखना, व्यवस्था का पालन करना तथा नियमों का अनुसरण करना आदि के रूप में ग्रहण किया जाता है। सभ्यता के विकास के साथ मानव ने अपने उत्कर्ष के लिए अनेक प्रकार के नियम तथा विधि-निषेध बनाए और प्रचारित किए। मानव जानता था कि बिना नियमबद्धता के कुछ भी निर्माण या विकास संभव नहीं। पूरी प्रकृति अर्थात् पृथ्वी, चंद्र, सूर्य आदि नियमों में बंधे हैं। यदि सूर्य मनमानी करने लगे तो रात-दिन का विधान ही बदल जाएगा। ऋतु परिवर्तन भी विधान के अनुसार ही क्रियाशील होता है। यह नियमबद्ध व्यवहार ही अनुशासन है। मानव की सभी क्रियाएँ अनुशासित रहती हैं, जैसे सोना, जागना, नित्य-कर्म, खाना-पीना, काम करना, मनोरंजन आदि।

अनुशासन सिद्धांत के साथ-साथ व्यवहार भी है। जब तक व्यवहार में न लाया जाए, तब तक अनुशासन के सिद्धांत निष्फल हैं। इन सिद्धांतों को व्यवहार में लाने की सर्वोत्तम अवस्था विद्यार्थी जीवन ही है। इसका मुख्य कारण यह है कि इस काल में शैशव की प्रवृत्तियाँ अभी पत्थर की लकीर नहीं बनी होती हैं। यह काल उस शिशु वृक्ष की शाखाओं की तरह होता है, जिन्हें मनचाही दिशा में मोड़ा जा सकता है। पूर्ण विकसित प्रवृत्तियाँ या आदतें कभी नहीं बदलतीं। कवि बिहारी ने कहा भी है-“कोटि जतन कोऊ करै, परें न प्रकृतिहिं बीच।” अर्थात् स्वभाव या प्रकृति पक जाने पर उसे बदलना दुष्कर है। जैसे प्रौढ़ हो चुके वृक्ष की शाखाओं को मोड़ने का प्रयास करें, तो वे टूट भले ही जाएँ परंतु मुड़ेंगी नहीं। विद्यार्थी को अनुशासन का व्यवहार सबसे पहले घर से प्राप्त होता है। घर में समय पर जागना, खाना-पीना, पढ़ना, खेलना, मनोरंजन करना, सोना, गृहकार्य करना आदि अनुशासन का व्यावहारिक रूप है।

विद्वानों ने अनुशासन को दो प्रकार का स्वीकार किया है। पहला अनुशासन है- ‘स्व-अनुशासन’ अर्थात् स्वयं को बिना किसी दबाव के नियमबद्ध करना। संतों व योगियों ने इसे अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना है क्योंकि इसमें संयम, इंद्रिय-निग्रह, ध्यान आदि आते हैं जिनका संबंध भीतरी संकल्प से है। अनुशासन का दूसरा प्रकार बहिरंग अनुशासन का है जिसे विभिन्न क्षेत्रों में व्यवस्था के भय के अधीन रहकर अपनाते हैं. समय पर तैयार होना, बस पकड़ना, विद्यालय पहुँचना, कक्षा में जाना आदि बहिरंग अनुशासन हैं। ध्यान केंद्रित करके अध्ययन करना, मनन करना, सकारात्मक मूल्यों व ज्ञान को आत्मसात करना आत्मानुशासन है। विद्यार्थी के लिए ये दोनों अनुशासन महत्त्वपूर्ण हैं।

आजकल विद्यार्थी-वर्ग में अनुशासनहीनता बढ़ रही है। इसका कारण बदलता हुआ परिवेश तथा नवीन जीवन मूल्यों का अनुकरण है। पाश्चात्य संस्कृति तथा दूरदर्शन के विदेशी चैनलों ने हमारे विद्यार्थी को भ्रमित करना आरंभ कर दिया है। आज का विद्यार्थी परंपरागत भारतीय आदर्शों व अतीत के श्रेष्ठ मूल्यों को भूलता जा रहा है। वह अपनी संस्कृति से उखड़ता जा रहा है। पाश्चात्य का अनुकरण उसे भ्रष्ट व अनुशासनहीन बना रहा है। यही कारण है कि आज के युवावर्ग में अराजकता बढ़ रही है। संतोष मिट रहा है। सहनशीलता व धैर्य जैसे गुण क्षीण होते जा रहे हैं।

अनुशासनहीनता का दूसरा बड़ा कारण हमारी दूषित शिक्षा पद्धति है। शिक्षा एक व्यवसाय बन गई है, जिसमें पैसा कमाना मुख्य लक्ष्य है। अध्यापक अपने विद्यार्थी को जीविका का माध्यम समझने लगे हैं। अत: वे अपने विद्यार्थी को श्रेष्ठ बनाने का दायित्व नहीं निभाते। तीसरा मुख्य कारण हमारे कुछ भ्रष्ट नेता हैं जो विद्यार्थियों का दुरुपयोग करते हैं। वे उनका मनमाने ढंग से उपयोग व शोषण करते हैं। वे अपने-अपने दल के प्रति विद्यार्थियों की रुचि को जैसे- तैसे मोड़ना चाहते हैं। इसके लिए वे उकसाने व भड़काने का काम करने से भी नहीं चूकते। जब राजनेता ही तोड़-फोड़ की राजनीति सिखाने लगे, तो विद्यार्थी का अनुशासनहीन हो जाना स्वाभाविक है।

मेरे जीवन का एक कटु अनुभव-

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