मानव अनुभव से बहुत कुछ सीखता है। इसीलिए अनुभव को पुस्तकीय ज्ञान से ऊपर माना जाता है। हमारे जीवन में मधुर-कटु- दोनों प्रकार के अनुभव पाए जाते हैं। कभी-कभी हमारा अनुभव इतना कड़वा हो जाता है कि हम स्वयं अपने ऊपर हँसते हैं। ऐसा ही एक कटु अनुभव मेरे जीवन में भी हुआ है।
जून महीने के दूसरे रविवार की बात है। हम सभी परिजन अपने घर में छुट्टी का आनंद ले रहे थे। बड़े भैया भाभी और उनका आठ मास का शिशु करण भी हमारे बीच थे। वे कल रात ही आए थे ताकि रविवार का आनंद लिया जा सके। प्रातः के नौ बजने वाले थे। हम सभी चने पूरियाँ खाकर गप्पें हाँक रहे थे कि तभी टांडा से हमारे मामा जी का फ़ोन आ गया। फोन पिता जी ने ही सुना। सुनते ही वे गंभीर हो गए। फिर हमारे पास आकर कहने लगे कि उन्हें अभी टांडा जाना होगा। हम डर गए कि कहीं कोई अनहोनी तो नहीं घट गई। तभी उन्होंने विस्तार सहित बताया जिसका सार यह था कि सपना दीदी के लिए कोई वर देखने अभी जाना होगा। लड़का अच्छा है। वह बंगलूरू से आया तो किसी अन्य कन्या को देखने के लिए था परंतु कन्या ने उसे नापसंद कर डाला। अतः वह कोई और कन्या देखकर ही जाना चाहता है। उसके पास केवल तीन बजे तक का समय है। तीन बीस पर उसकी गाड़ी छूट जाएगी।
भैया ने कहा कि यह तो शुभ समाचार है। उनके पास जीप है। एक घंटे में ही टांडा पहुँच जाएँगे। सुनते ही सभी तैयारी करने लगे। सपना ब्यूटी क्लिनिक जाने का हठ कर बैठी तो भैया पहले उसे छोड़ने चले गए।
ग्यारह बजे सभी तैयार खड़े थे। भैया सपना को लेकर ग्यारह बीस पर आए तो हम सभी जीप में सवार होकर टांडा की ओर चल पड़े। गलियाँ पार करते ही भैया ने घड़ी देखकर कहा कि हम लोग साढ़े बारह बजे तक अवश्य पहुँच जाएँगे। अभी भोगपुर से थोड़ा आगे निकले थे कि जीप रोकनी पड़ी। मैं पीछे बैठा करण के साथ अठखेलियाँ कर रहा था। मैंने पूछा तो भैया बोले आगे भारी जाम-सा लगा दिखाई दे रहा है। मैंने करण भाभी की गोद में डाला और नीचे उतर गया। इधर-उधर पूछा तो यही उत्तर मिला कि आगे रास्ता जाम है। कारण किसी को पता न था।
मैं आगे बढ़ा। लगभग एक किलोमीटर पैदल चलने के बाद पता चला कि परसों की भारी बरसात में पुल बह गया है। दोनों ओर आर-पार जाने के लिए पैदल चलना पड़ेगा। इधर की बसें उधर की बसों को अपनी सवारी दे रही हैं और उधर की बसें इधर की बसों को। निजी वाहन या तो लौट जाते हैं। या फिर रास्ता खुलने की प्रतीक्षा में हैं। मैंने काम पर लगे विशाल श्रमिक-समूह में से एक से पूछा कि कब तक रास्ता खुल सकेगा। इस पर वह बोला कि कल तक तो खुल ही जाएगा। शाम तक भी खुल सकता है।
मैं यह अप्रिय समाचार लेकर जीप की ओर उदास मन व ढीले कदमों से लौटने लगा। समाचार सुनकर भैया ने कहा कि वे मामा जी को फोन कर देते हैं कि विवशता में लौटना पड़ रहा है। फोन पर मामाजी ने कहा कि लड़का हाथ से निकल सकता है। ऐसा वर शायद फिर सपना के लिए सपना ही हो जाए। अतः हम लोग जैसे-तैसे सपना को जरूर पहुँचवाएँ, भले ही बस द्वारा।
गीली कच्ची मिट्टी, कीचड़, रेत और पत्थरों से जूझते हुए हम लोग पैदल ही खड्ड के पार की ओर चलने लगे। जीप एक सरदार जी के मकान के आगे खड़ी कर दी थी। खड्ड पार करने में हमारे पसीने छूट गए। सभी के पास सामान था। भाभी के पास करण था। चार कदम चलकर ही प्यास लग जाती। पानी की बोतलें, करण के दूध की बोतल और फल आदि सब पिछले एक घंटे में समाप्त हो चुका था। खड्ड के पार जाकर हम उधर टांडा की ओर लौटने वाली बस की प्रतीक्षा करने लगे। कड़कती धूप, खड्ड का पानी। दूर तक छायादार पेड़ तो थे परंतु वे सब बरसात में बह गए थे। करण चीखने-चिल्लाने लग गया। एक भली स्त्री ने उसके लिए कुछ बिस्कुट दिए तो वह थोड़ी देर के लिए शांत हुआ।
खचाखच भरी बस में सवार होना हिमालय पर चढ़ने के समान था। फिर भी हमने हिम्मत न हारी। जैसे-तैसे अपने आपको ढूंस-ठासकर टांडा पहुँचे। सभी बदहवास थे। उतरते ही पानी पीया। तभी एक बड़ी कार का ड्राइवर हमारे पास आया और गौर से देखकर पूछने लगा “जालंधर से आए हैं। भैया ने कहा-” जी, हाँ।” उसने कहा – ” चलिए, साहब ने गाड़ी भेजी है।” कार में सवार होकर मानो हम धन्य हो गए। कार चलती गई। तभी मैंने भैया से पूछा- “कितना लम्बा रास्ता है?” भैया बोले- “आराम से बैठो, घर जाकर पूछना जो भी पूछना है।”
हमारे होश तब गुम हुए जब कार एक अज्ञात भवन के आगे रुकी और ड्राइवर बोला-“लीजिए, आ गया कटारिया साहब का महल।’ हमने स्वयं को ठगा-सा महसूस किया। वह मामा जी का नहीं, किसी और का घर था। बिना पूछे कार में बैठना हम सभी शिक्षितों को मूर्ख सिद्ध कर गया। उस दिन के बाद हम फूंक-फूंककर कदम रखने लगे। मन के हारे हार है मन के जीते जीत।-