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एक ऐसी मौलिक कहानी लिखिए जिसका अन्तिम वाक्य हो:
काश! मैंने माँ की बात मानी होती।
यदि मैं प्रधानाध्यापक होता

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यह उन दिनों की बात है जब हमने अपने जर्जर-से मकान को छोड़कर एक नवनिर्मित कालोनी में किराए का घर लिया था। घर के सामान को विधिवत् रूप से बाँधा जाने लगा। रविवार को नए घर में जाना तय हुआ।

पिताजी कल शाम ही एस्टेट एजेंट से कोठी की चाबियाँ ले आए थे। प्रात:काल ट्रक और लदानकर्मी आने वाले थे। मैंने मम्मी के साथ सूर्योदय से पूर्व ही उठकर दोपहर का भोजन पकाकर पूरी रसोई समेट दी थी। इतने में ट्रक वाले आए और सामान लदने लगे।

सामान लदने लगा तो पापा ने हमें चाबियाँ देकर कहा कि वह लोग ऑटोरिक्शा में जाकर घर को खोलें और झाड़ लगा दें। वे ट्रक के साथ आएंगे। हमें जैसे इसी आदेश की प्रतीक्षा थी। मेरे भैया तो नाच ही उठे। वे तुरंत एक ऑटोरिक्शा ले आए और हम उस पर दुपहर का टिफिन लिए सवार हो गए। हमें मानो पंख लग गए थे और हम उड़ रहे थे।

टैगोर पार्क, कोठी नं: 32। वाह! क्या भव्य कोठी है। हमने ऑटो वाले को किराया दिया और अंदर जाने लगे। परन्तु यह क्या, चाबी तो लग ही नहीं रही। बहुत प्रयास किया। मम्मी ने भी ज़ोर लगाया। कोई अंतर नहीं आया। तभी पड़ोसन दिखाई दी। उसने पूछा हम लोग कौन हैं? जब उसे पूरा मामला समझाया गया तो वह बोली-वे लोग भी हमारे पास चाबियों का गुच्छा दे गये थे। आप ट्राई कर लो। हो सकता है कि दलाल ने आपको किसी और कोठी की चाबियाँ भूल कर दे दी हों।”

हम पड़ोसिन द्वारा दी गई चाबियों को लगाते गए और हमारे सामने गेट, मुख्य द्वार, शयनकक्ष आदि सब खुलते गये। वाह! कितनी करीने से बनी कोठी है। इतने कमरे ! पापा ने तो उन लोगों को ठग ही लिया। दो हजार में तो दो कमरों का मकान नहीं मिलता और यहाँ तीन शयनकक्ष, एक बैठक, एक बड़ी लॉबी, स्टोर, पोर्च और गैरेज थे।

हम अपने उत्साह के चरम पर थे। झाड़ लगाकर पूरे घर को पानी और फेनायल से धो दिया। पंखे छोड़ दिये ताकि फर्श सूख जाए। तब खिड़कियों दरवाजों में जाले पोंछने लगे। मैं मम्मी से बार-बार कोठी की और पापा की प्रशंसा कर रही थी। पापा ने सूझबूझ से ऐसा मकान खोजा था। जिसके मालिक अपार धनपति होंगे-तभी तो इतने पंखे, टयूब लाईट, पानी की मोटर-सब लगे लगाए छोड़ गए थे। कोई और होता तो सब कुछ निकाल कर ले जाता।

पापा नहीं आए। दुपहर हो आई। ट्रक नहीं आया। हम थक गये थे। ट्रक की प्रतीक्षा में बाहर गेट पर आ गए। ट्रक का कोई अता-पता नहीं था। हमारे कपड़े मज़दूरों जैसे मटियाहे और गंदे हो चुके थे। पापा की कोई खोज-खबर न थी। मम्मी के चेहरे पर चिंता की रेखाएँ उभर रही थीं। साफ़-सफ़ाई में हम भूल ही गएं थे कि ट्रक को यहाँ पहुँचने में दो घंटे से अधिक समय नहीं लगना चाहिए। हम तो पंद्रह मिनट में आ गए थे परन्तु बड़ी गाड़ियाँ बाई पास से होकर मुख्य मार्ग से इस कलोनी की ओर आ सकती हैं। फिर भी दो घंटे बहुत थे। यहाँ तो दुपहर भी बीत रही थी।

इस बीच पड़ोसन चाय, समोसे और घर के बने पकौड़े ले आई। हमें भूख लग आई थी। हमने चाय तो नहीं पी, परन्तु पकौड़े भरपेट खाए। मम्मी ने केवल चाय ली। वे घबरा रही थी। पड़ोसिन ने सांत्वना के स्वर में कहा-: आखिर मशीनरी है, खराब भी पड़ सकती है। पुलिस कुत्तों जैसे सूंघती रहती है… क्या पता उसी ने तलाशी के बहाने रोक लिया हो।”

मम्मी ने इतना कहा- “मैं न कहती थी कि घर बदलने से पहले मोबाइल ले लो। पर तुम मेरी सुनती ही नहीं हो। आज पास में मोबाइल होता तो झट से पता कर लेती।”

तभी मेरे मस्तिष्क में एक युक्ति सूझी। मम्मी के पर्स में पापा का दिया कार्ड था। एस्टेट एजेंट का फोन व पता उसी कार्ड पर था। मैंने कार्ड देखा तो पता पास ही का था। मैं अपने भाई के साथ उधर निकल पड़ी। मम्मी में चलने की शक्ति नहीं थी।

एस्टेट एजेंट ने सारी कथा सुनकर हँसना शुरू कर दिया। मैं हैरान थी कि यह कैसा दलाल है जो अपने ग्राहक की मुसीबत में भी खिल्ली उड़ा रहा था। तभी उसने संयत होकर कहा-“गुड़िया रानी! आपको टैगोर नगर जाना था और आप आ गए टैगोर पार्क में। आपका ट्रक वहीं पहुँचा होगा। वह कॉलोनी शहर के पश्चिमी छोर पर है। जल्दी जाइए, आपका तो जून में भी अप्रैल फूल बन गया।” हम वहाँ से ऑटो करके टैगोर नगर की ओर चल निकले। उस घटना को सुनाकर हम आज भी अपने परिचितों का मनोरंजन करते हैं। काश! हमने माँ की बात मानकर मोबाइल लिया होता।

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