‘संस्कृति क्या है?’ शीर्षक निबंध में हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि, लेखक एवं सांस्कृतिक विचारक रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने संस्कृति के वास्तविक स्वरूप व लक्षणों को रेखांकित किया है।
दिनकर ने सांस्कृतिक आदान-प्रदान की सकारात्मक प्रवृत्ति के उदाहरणों द्वारा इसके लक्षणों को संकेतित किया है। वे सबसे बड़ा उदाहरण मुस्लिमों के भारत में आगमन का देते हैं जिससे हमें कलाओं और भाषा (उर्दू) की समृद्धि प्राप्त हुई। चित्रकला भी इसी मुस्लिम शासन की देन है।
सांस्कृतिक आदान-प्रदान का सकारात्मक व अनुकूल रूप सदैव हितकर होता है। यदि यूरोप से भारत का संपर्क न हुआ होता तो भारतीय विचारधारा पर विज्ञान की कृपा बहुत देर से हुई होती। इसी से जुड़ी बात यह है कि इसी यूरोपीय प्रभाव के कारण हमारे यहाँ राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, राम कृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद और महात्मा गाँधी जैसे सुधारक व सांस्कृतिक चिंतक पैदा हुए हैं। जब दो जातियाँ मिलती हैं तो उनके संपर्क अथवा संघर्ष से जीवन की एक नवीन धारा फूटती है, जिसका प्रभाव उन दोनों जातियों पर पड़ता है। अतः सांस्कृतिक लेन-देन की यह प्रक्रिया ही संस्कृति की आत्मा है। इसी के सहारे उसके प्राण बने रहते हैं और वह देर तक और दूर तक जीवित रहते हुए अपना प्रभाव डालती रहती है।
निबंधकार बताते हैं कि केवल चित्रकला, काव्य, मूर्ति कला, स्थापत्य या वास्तु कला और वस्त्र शैली पर नहीं, सांस्कृतिक संपर्क का प्रभाव दार्शनिक चिंतन और विचार की दशा-दिशा पर भी पड़ता है। वे लिखते हैं – केवल चित्र, कविता, मूर्ति, मकान और पोशाक पर ही नहीं, सांस्कृतिक संपर्क का प्रभाव दर्शन और विचार पर भी पड़ता है। एक देश में जो दार्शनिक और महात्मा उत्पन्न होते हैं, उनकी आवाज दसरे देशों में भी मिलते-जलते दार्शनिकों और महात्माओं को जन्म देती है। एक देश में जो धर्म खड़ा होता है, वह दूसरे देशों के धर्मों को भी बहुत-कुछ बदल देता है। यही नहीं, बल्कि प्राचीन जगत् में तो बहुत-से ऐसे देवी-देवता भी मिलते हैं जो कई जातियों के संस्कारों से निकलकर एक जगह जमा हुए हैं।
दिनकर जी का मानना है कि एक जाति विशेष की धार्मिक परिपाटी संपर्क में आने वाली किसी दूसरी जाति की परिपाटी या रिवाज बन जाता है। इसी प्रकार किसी एक देश की प्रवृत्तियाँ किसी दूसरे देश के सामाजिकों की प्रवृत्तियों में जाकर समा जाती हैं। अतः संस्कृति की दृष्टि से वह जाति और देश शक्ति संपन्न और महान समझे जाने चाहिए जिसने विश्व के अधिकांश जन-समूह को प्रभावित किया। उनके शब्दों में –
एक जाति का धार्मिक रिवाज दूसरी जाति का रिवाज बन जाता है और एक देश की आदत दूसरे देश के लोगों की आदत में समा जाती है। अतएव, सांस्कृतिक दृष्टि से वह देश और वह जाति अधिक शक्तिशालिनी और महान् समझी जानी चाहिए जिसने विश्व के अधिक-से-अधिक देशों, अधिक-सेअधिक जातियों की संस्कृतियों को अपने भीतर जज़्ब करके, उन्हें पचा करके, बड़े-से-बड़े समन्वय को उत्पन्न किया है।
निबंधकार ने सांस्कृतिक दृष्टि से भारतीय संस्कृति को सबसे बड़ी समन्वयकारी संस्कृति बताया है। इसका एकमात्र और महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि यहाँ की संस्कृति में बाहर की अधिकाधिक संस्कृतियाँ मिश्रित होकर उसका अभिन्न व अटूट अंग बन गई हैं।
काव्य मंजरी