(i) प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक काव्य मंजरी में संकलित तुलसीदास के पद’ शीर्षक कविता में से उद्धृत हैं। इसमें कवि तुलसीदास ने एक भक्त के रूप में भगवान श्रीराम के प्रति अपनी अटूट आस्था प्रकट की है। वे उनके श्री-चरणों को अपना परम धाम मानते हुए उसे छोड़कर कहीं भी दूसरी जगह न जाने का संकल्प व्यक्त कर रहे हैं।
(ii) पतितपावन प्रभु श्रीराम को कहा गया है। इस विशेषण की सार्थकता यह है कि वे एकमात्र ऐसे देव हैं जो नीच, अपवित्र, अधम या पतित व्यक्तियों का उद्धार करते हैं। उन्होंने न जाने कितने नरनारियों को मुक्ति प्रदान कर अपने चरणों में स्थान दिया है। जटायु, मरीच, जरा नामक शिकारी, अहल्या, यमलार्जुन वृक्ष आदि इसी के उदाहरण हैं।
(iii) ‘माया-बिबस विचारे’ का भाव यह है कि यह संसार एक दिखावटी चकाचौंध है। इसकी माया में ग्रस्त होकर जीव भ्रम में जीवन काटता जाता है। माया-मोह के वश में पड़ा प्राणी प्रभु को भूल जाता है और मुक्ति के लिए सार्थक प्रयास नहीं करता।
(iv) प्रस्तुत पद में कवि तुलसीदास ने अपने आराध्य देव प्रभु श्रीराम के चरणों को अपने जीवन का चरम लक्ष्य माना है। वे उनकी कृपा, वत्सल भावना, उद्धार करने की सामर्थ्य व भक्तों पर अपार करुणा से प्रभावित हैं। उन्हें लगता है कि प्रभु श्रीराम ही उन जैसे संसारी जीवों का उद्धार कर उन्हें अपने चरणों में जगह दे सकते हैं। वे इसकी पुष्टि के लिए रामायण व अन्य ग्रंथों से उदाहरण देते हैं जिनमें नीच, पतित व अधम नर-नारियों का उद्धार किया गया है। इसीलिए तुलसीदास को राम का परमभक्त कहते हैं।