भक्तिकाल की निर्गुण काव्यधारा के संत कवि कबीरदास एक क्रांतिकारी ज्ञानमार्गी कवि हैं। उन्होंने मध्यकालीन धर्म-साधना में अद्भुत व मौलिक योगदान दिया। उन्होंने अपने समय में प्रचलित धार्मिक संकीर्णताओं, पाखंडों, आडम्बरों व व्यर्थ कर्मकांडों की खुलकर निंदा की। कबीरदास ने अपनी क्रांतिकारी वाणी द्वारा मनुष्य को सच्चा मार्ग दिखाते हुए भक्ति के वास्तविक रूप का साक्षात्कार कराया। प्रस्तुत साखियों में कबीर का धर्म सुधारक तथा समाज सुधारक रूप दिखाई देता है। वे कहते हैं कि मनुष्य को सच्चे गुरु द्वारा दिया गया ज्ञानदान ही इस जगत् से मुक्ति दिला सकता है। लोक-प्रचलित विश्वासों और वैदिक सूत्रों की अपेक्षा सद्गुरु की शरण में जाना अनुकूल सिद्ध हुआ। उसके दिए हुए ज्ञान के प्रकाश से सारा अंधकार मिट जाता है। जब तक मनुष्य प्रेम के महत्त्व को नहीं समझता, तब तक उसकी आत्मा तृप्त नहीं हो सकती और वह शुष्कता का जीवन ही जीता रहता है।
कबीर ने स्पष्ट किया है कि आत्मा उस परमात्मा का अंश है जो अलख, निराकार अजर-अमर, स्वयंभू तथा एक है। उससे बिछुड़ी आत्मा उसी ब्रहम् में लीन होने के लिए व्याकुल रहती है। उसे जब तक प्रभु से मिलन नहीं हो जाता, तब तक दिन-रात, धूप-छाँव और स्वप्न में भी कहीं सुख प्राप्त नहीं हो सकता। वे प्रभु से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें जीते जी दर्शन हो जाएँ तो अच्छा है क्योंकि मरने के बाद दर्शन किसी काम के नहीं।
कबीर की प्रभु से बिछुड़ी आत्मा उसी का नाम पुकारती रहती है और उसका मार्ग निहारती रहती है। अब आँखें थक चुकी हैं जो प्रभु के आने के मार्ग पर सदैव से टिकी हुई थीं। जीभ पर भी उसका नाम रटते-रटते छाला पड़ चुका है।
कबीर ने प्रभु से सच्ची लौ लगाने का प्रस्ताव किया है। उनका विचार है कि योगी का पाखंड धारण करके जंगल-जंगल या पर्वत-पर्वत भ्रमण करने पर कुछ भी प्राप्त नहीं हो सका। प्रभु से मिलाने वाली बूटी अर्थात् साधना का सूत्र कहीं पर भी नहीं मिला। क्योंकि यह भक्ति का सच्चा मार्ग नहीं था। संसार में आकर मनुष्य अनुपम चकाचौंध में भ्रमित होने लगता है। उसे मोह-माया आकर्षित कर लेती है। जब तक इस मोह-बंधन से मुक्ति नहीं मिलती, तब तक प्रभु दूर ही रहता है।
कबीर ने ईश्वर को प्राप्त करने के लिए शारीरिक रूप से योगी बनने के प्रचलन को भ्रामक व अर्थहीन बताया है। वे कहते हैं कि जब तक मनुष्य अपनी अंतरात्मा से योगी नहीं बनता, तब तक उसे कभी भी मुक्ति रूपी सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। उनका आशय है कि बाहरी रूप से योगी या संत का पहनावा कुछ नहीं कर सकता। साधक को अपने भीतर के विकारों और अपनी भोगपरक इंद्रियों पर काबू पाना होगा। ऐसा मन का योगी कोई विरला ही होता है और वही मुक्ति रूपी सिद्धि का सच्चा तथा वास्तविक अधिकारी होता है।
कबीर ने जहाँ एक ओर इंद्रियों को वश में रखने और मन की शुद्धि पर बल दिया है। वहीं उन्होंने आचरण की स्वच्छता को भी अनिवार्य बताया है। सच्चा आचरण तभी अपनाया जा सकता है जब मनुष्य का अपने अहं पर पूर्ण नियंत्रण हो। जब तक उसमें अहं-भावना का प्रसार रहता है, तब तक उसे ज्ञान प्राप्त नहीं होता। इस ज्ञान के बिना हरि से मिलन संभव नहीं। वे कहते हैं कि अहंकार और ईश्वर एक ही शरीर के भीतर निवास नहीं कर सकते।
इस प्रकार कबीर ने ज्ञानमार्ग द्वारा तत्कालीन धार्मिक समाज को सही दिशा दिखाई है। वे वास्तव में एक क्रांतिकारी सुधारक थे।