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“यह लोकनीति है मैं तो कहूँगा कि लोकनीति और मूर्खनीति दोनों का एक ही अर्थ है।”

(i) उपर्युक्त कथन कौन, किससे और कब कह रहा है?

(ii) उपर्युक्त वाक्य किस सन्दर्भ में कहा गया है?

(iii) वक्ता का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

(iv) ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक का उद्देश्य लिखिए।

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(i) प्रस्तुत कथन सुप्रसिद्ध नाटककार मोहन राकेश कृत ऐतिहासिक नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में से उद्धृत है। इसका वक्ता मातुल है। वह कालिदास का मामा है। यह कथन उसने तब कहा, जब वह अपनी बहन अंबिका से कालिदास के विचारों पर टिप्पणी कर रहा था।

(ii) प्रस्तुत वाक्य मातुल द्वारा कालिदास के उज्जयिनी न जाने के निर्णय के प्रसंग में कहा गया है। जब अंबिका बताती है कि कालिदास अपने स्वाभिमान के कारण राजकीय सम्मान नहीं ग्रहण करना चाहता क्योंकि यह क्रय-विक्रय की नीति है, तो मातुल उक्त टिप्पणी करता है। वह इसे लोक-नीति न कहकर मूर्खनीति घोषित करता है।

(iii) वक्ता मातुल कालिदास का मामा है। वह पशु पालने का व्यवसाय करता है। उसे साहित्य की कोई समझ नहीं है। वह चाहता है कि जैसे-वैसे कालिदास को पद और प्रतिष्ठा मिल जाए। वह एक व्यवहार-कुशल सामाजिक है जो अवसर का लाभ उठाना चाहता है। उसे यश की चाह है। वह एक चाटुकार और स्वार्थी चरित्र वाला व्यक्ति है। राज्याश्रय का कटु अनुभव उसे धरती पर लाकर खड़ा कर देता है।

(iv) ‘आषाढ़ का एक दिन’ नामक नाटक तीन समस्याओं को लेकर चलता है। राज्याश्रय, सर्जक का अहं तथा नर-नारी संबंध। पूरे नाटक में कालिदास को केंद्र में रखकर इन्हीं तीन समस्याओं को उद्देश्य के रूप में चित्रित किया गया है।

वास्तव में नाटककार ने कालिदास के अंह को नाटक की पहली समस्या के रूप में उभारा है। नाटक में दूसरी समस्या राज्याश्रय से जुड़ी है। नाटककार यह स्थापित करना चाहता है कि राजकीय मुद्राओं से खरीदा गया साहित्यकार कभी भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए नहीं रख सकता। राजदरबार में जाते ही उसकी प्रतिभा कुंद हो जाती है। कालिदास के संदर्भ में भी यही होता है। वह अपने स्वतंत्र जीवन-दर्शन और सर्जनात्मक चिंतन से हाथ धो बैठता है।

तीसरी समस्या नर-नारी संबंधों के रूप में आती है। मल्लिका और कालिदास का निश्छल और निश्चल पवित्र प्रेम एक ओर रह जाता है और राज्याश्रय का प्रकोप प्रबल हो उठता है। यद्यपि राज्याश्रय में जाने की प्रेरणा स्वयं मल्लिका देती है तथापि उसके पीछे उसकी दुर्गति भी कम त्रासद नहीं है। माँ अंबिका के स्वर्गवास के बाद वह दाने-दाने को मुँहताज हो जाती है तो विवशता में विलोम का आश्रय स्वीकार कर लेती है। विलोम से उसकी एक बच्ची भी हो जाती है। परंतु उसके मन-मस्तिष्क पर कालिदास ही छाया रहता है। अंत में उसे अनिश्चितता के धरातल पर खड़ा देखते हैं।

राजकुमारी प्रियंगुमंजरी से कालिदास का विवाह भी इसी ओर संकेत करता है कि कालिदास के लिए प्रेम अंतिम व चरम मूल्य नहीं बन सका। इस प्रकार नाटककार ने इन तीन समस्याओं के आलोक में प्रस्तुत नाटक का ताना-बाना बुना है।

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