पक्ष : अपराधी को अपराध करने से पहले अपराध का बोध होता है और उसके दण्ड का भी आभास होता है। अपनी आत्मा, समाज और कानून व्यवस्था के विरुद्ध जो कार्य किया जाता है वह अपराध की श्रेणी में आता है। कोई इन्सान अच्छा बुरा नहीं होता, बल्कि हालात उसे अच्छा या बुरा बनाते हैं। कुछ अपराध ऐसे होते हैं जो धर्म के विरुद्ध किये जाते हैं, कुछ अपराध समाज के विरुद्ध किये जाते हैं, कुछ व्यक्ति विशेष को हानि पहुँचाने के लिए किये जाते हैं और कुछ अपराध स्वयं को लाभ पहुँचाने के लिए किये जाते हैं। अपराध तो अपराध है वह चाहे किसी भी कारण से किया गया हो। कानून की दृष्टि में प्रत्येक अपराध के लिए दण्ड निहित है।
साधु-सन्तों और मनीषियों ने कहा है कि पापी से नहीं पाप से घृणा करो। कई ऐसी घटनाएँ हुई हैं जिनमें अपराधी ने अपराध छोड़कर समाज के हित में कार्य किये। अपराधी को समाज और कानून द्वारा सुधरने का अवसर प्रदान करना चाहिए। यदि वह जुर्म छोड़कर देश हित में कार्य करता है तो इससे राष्ट्र के निर्माण में सहायता मिलेगी। जो उच्चकोटि का अपराधी होता है उसमें मजबूत आत्मिक शक्ति होती है। यदि वह शक्ति देश के निर्माण में लग जाये तो कितना भला होगा राष्ट्र का। अतः अपराधी की स्थिति को समझकर उसकी कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। उसे कानून से भी कुछ सुविधाएँ दी जायें और उसे समाज सेवा का बोध कराया जाये तो अवश्य ही उसका हृदय परिवर्तन होगा और वह जुर्म का मार्ग छोड़कर विकास के मार्ग पर चलेगा।
आजकल बड़े-बड़े डाकू तो अपने अपराध मार्ग से विरत हो गये हैं, लेकिन छोटे-मोटे अपराधी अपने गलत कार्यों में संलग्न हैं।
संत विनोबा भावे ने एक ‘भूदान’ आन्दोलन चलाया जिसमें किसानों से थोड़ी-थोड़ी जमीन लेकर भूमिहीनों को दी जाती थी। यह आन्दोलन सफल रहा। इसी दौर में डाकुओं के आत्मसमर्पण का कार्य भी तेजी से चला। जितने भी नामी डाकू थे उन्होंने अपने साथियों के साथ आत्मसमर्पण किया। कानून ने उदारता से उनका साथ दिया और अपनी सजा काटकर जब वे आये तो उन्हें गाँवों में जमीन और घर दिये गये जिससे कि वे एक साधारण नागरिक की तरह अपना जीवन व्यतीत करने लगे। यह था विनाश से निर्माण की ओर आना। भगवान बुद्ध के समय एक अंगुलिमाल डाकू हुआ था जिसने एक हजार व्यक्तियों की हत्या करने का प्रण लिया था। संख्या गिनने के लिए वह जो आदमी मारता था उसकी एक अंगुली काटकर उसकी माला बनाकर अपने गले में पहन लेता था। जनता उसके डर के मारे त्राहि-त्राहि कर उठी थी।
जिस जंगल में वह रहता था वहाँ राजा ने एक पहरेदार बैठा दिया था कि उस जंगल से होकर कोई यात्री न जाये। राजा ने भगवान बुद्ध से उसके आतंक से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। भगवान बुद्ध उस जंगल में गये और अंगुलिमाल के सामने निडर होकर प्रसन्न मुद्रा में खड़े हो गये। अंगुलिमाल को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उसके सामने आते ही लोगों की घिग्घी बँध जाती है, लेकिन यह व्यक्ति निडर होकर खड़ा है। कहते हैं भगवान बुद्ध ने उसे उपदेश दिया जिसे सुनकर उसने अपनी कटार भगवान बुद्ध के चरणों में रख दी और उनका शिष्य बनकर अहिंसा के मार्ग पर चलने लगा। इससे हमें यह बोध होता है कि भगवान बुद्ध ने भी अपराधी को नष्ट नहीं किया, बल्कि उसके अपराध को नष्ट किया।
इसी सन्दर्भ में एक कहानी याद आती है कि एक बड़े शहर के चर्च में एक सहृदय विशप रहते थे। लोगों का भला करना ही मानो उनके जीवन का उद्देश्य था। एक दिन एक अपराधी जेल से छूटकर आया और कहीं ठिकाने की तलाश में चर्च के द्वार पर आकर बैठ गया। विशप ने जब देखा कि यह कोई दुखियारा है तो उसे अपने कमरे में ले गये। भोजन कराने के बाद उसे सोने के लिए स्थान दिया। जब विशप सो गये तो यह अपराधी उठा तो उसने चाँदी की कैण्डिल स्टिक देखी। वे चार थीं और वजन में भारी। पहले तो उसने सोचा कि विशप को मार दूं और ये कैण्डिल स्टिक ले लूँ। फिर उसके मन में विचार आया कि इस भले आदमी को क्यों मारूँ सिर्फ कैण्डिल स्टिक लेकर चलूँ। उसने ऐसा ही किया, किन्तु रात में पुलिस ने उसे पकड़ लिया और उन कैण्डिल स्टिकों को पहचान लिया।
सुबह पुलिस वाले उस चोर को पकड़कर विशप के पास लाये और उनसे पूरी बात कही। विशप समझ गये कि इस गरीब आदमी को उन चाँदी की कैण्डिल स्टिक की ज्यादा आवश्यकता है। उन्होंने पुलिस से कहा कि उस आदमी को छोड़ दें क्योंकि वे कैण्डिल स्टिक उन्होंने ही उसे दी थीं। पुलिस उसे छोड़कर चली गई। अब वह चोर विशप के पैरों में पड़ गया। उसने अब से कोई अपराध न करने की कसम खाई और वहीं चर्च में सेवा करने लगा।
इन तथ्यों से पता चलता है कि अपराधी को नहीं बल्कि अपराध को समाप्त करने से मजबूत राष्ट्र तैयार होता है।
विपक्ष : यह कथन सत्यता से कोसों दूर है क्योंकि अपराधी अपने अपराध को कभी नहीं छोड़ता। यदि ऐसा होता, तो सजा काटकर आये अपराधी फिर से अपराध नहीं करते, सजा काटकर
आया हुआ व्यक्ति और अधिक जुर्म करता है। उसका हृदय इतना – कठोर हो जाता है कि उसे बदलना मुश्किल नहीं असम्भव है।
साधु संन्यासियों की बात आज कौन सुनता और मानता है? यदि अपराध समाप्त करने से अपराधी समाप्त हो जाता तो अब तक भारत में अपराध देखने को नहीं मिलता। भारत क्या सभी देशों में आज आतंकवादी माहौल के कारण साँस लेना भी दूभर हो रहा है। क्या आतंकवादियों का हृदय परिवर्तन सम्भव है? कभी नहीं प्राचीनकाल में अपराध के कठोर दण्ड नियत थे इसलिए अपराधों की संख्या न के बराबर थी। चोरी करने पर चोर के हाथ काट दिये जाते थे। अतः लोग अपने घरों में ताले नहीं लगाते थे। अपराधी को कठोर दण्ड देने या उसे मृत्युदण्ड देने से उसके साथ-साथ उसके साथियों द्वारा किया जाने वाला अपराध भी समाप्त हो जाता है।
प्रात:काल जज साहब भ्रमण के लिए जा रहे थे तभी उन्होंने। देखा कि एक व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति को चाकू मार दिया और भाग गया। कुछ हफ्तों बाद उसी हत्या का मुकदमा उन्हीं जज साहब के कोर्ट में आया। जज साहब को आश्चर्य हुआ कि खून के इल्जाम में पकड़ा गया आदमी कोई और व्यक्ति है, वह व्यक्ति नहीं जिसको जज साहब ने देखा था। सारे सबूत उस पकड़े गये व्यक्ति के खिलाफ थे। जज साहब ने फैसला देने से पहले उस पकड़े गये व्यक्ति को अकेले में बुलाया और उससे पूछा कि तुम इस केस में कैसे फँस गये। खून तुमने नहीं किसी और ने किया है, लेकिन सारे सबूत तुम्हारे खिलाफ हैं। उस व्यक्ति ने शान्तिपूर्ण ढंग से उत्तर दिया कि जज साहब आप सबूतों के आधार पर अपना निर्णय दें, वह व्यक्ति जिसने खून किया है वह इस बार तो बच गया है, लेकिन आगे पकड़ा जायेगा जैसे मैं कई बार बच गया हूँ, पर इस बार पकड़ा गया। यह सुनकर जज साहब अवाक रह गये और ऊपर भगवान के न्याय की ओर देखने लगे।
यदि हम इस आशा में कि अपराधी सुधर जायेंगे, उन पर दयाकर उन्हें छोड़ दें तो यह कभी सम्भव नहीं है। हम अपना समय बर्बाद कर रहे हैं। अपराधियों के अपराध समाप्त करने के लिए उनके लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था करनी होगी।