‘अहंकार से वृद्धि रुक जाती है’ यह उक्ति अक्षरशः सत्य है। अहंकार एक ऐसा अवगुण है जो मनुष्य के हृदय और मस्तिष्क पर हावी रहता है और उसे उसका भान भी नहीं होता। वह उसके मार्ग में प्रतिपग बाधा उत्पन्न करता है। अन्य मनुष्य ही समझ पाते हैं कि अमुक मनुष्य अहंकारी है अतः वे उससे दूरी बनाकर रखते हैं। अहंकार न दिखाई देते हुए भी स्पष्ट परिलक्षित हो जाता है। अहंकार अहंकारी व्यक्ति को भरोसा दिलाता है कि उसके सब काम अहंकार के कारण ही होंगे पर होता इसके विपरीत ही है। मनुष्य का जीवन अपने आस-पास के वातावरण से प्रभावित होता है। मूलरूप से मानव के विचारों और कार्यों को उसके संस्कार, वंश परम्पराएँ ही दिशा दे सकती हैं, अहंकार नहीं। यदि उसे अच्छा वातावरण मिलता है तो वह श्रेष्ठ कार्यों को सम्पादित करता है। यदि अपने अहंकार के कारण उसे उचित वातावरण सुलभ नहीं हो पाता है तो उसके कार्य भी उससे प्रभावित होते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व उसकी जीवन शैली और आचरण के रूप में प्रतिबिम्बित होता है। यदि मनुष्य का आचरण नैतिकता के अनुरूप है तो उस मनुष्य की सामाजिक प्रतिष्ठा अन्य लोगों के लिए प्रेरणा बन जाती है और वह व्यक्ति समाज में सम्मान पाता है। इसके विपरीत यदि मनुष्य का आचरण सामाजिक, सांस्कृतिक, वैधानिक, धार्मिक नियमों के प्रतिकूल और अहंकार से प्रभावित है तो वह समाज में अपमान का पात्र होता है। अतः मनुष्य का जीवन अहंकार हीन और सदाचार में अधिक महत्व रखता है। सदाचार का जीवन में विशेष महत्व है। यदि मनुष्य का आचरण सत्य पर आधारित हो तो मनुष्य, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं भौतिक रूप से समृद्ध रहता है।
अहंकार और दम्भ मनुष्य को यह दर्शाते हैं कि वह सभी मनुष्यों से श्रेष्ठ है और अपने बलबूते पर ही सब काम कर सकता है। यह अभिमान उसके कार्यों में बाधा उत्पन्न करता है। ईश्वर भी अपने भक्तों में अभिमान के अंकुर फूटने नहीं देता। जहाँ अभिमान प्रतिष्ठापित है वहाँ ईश्वर का निवास नहीं होता;
जैसे-
“जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहि।”
भगवान ने नारद के अभिमान को मायानगरी बनाकर नष्ट किया। बाली को अपने बल पर अभिमान था, पर श्रीराम ने उसे मारकर उसका अहंकार तोड़ दिया। एक बार गरुड़ को अपनी गति का अभिमान हुआ था। वह हनुमान जी को बुलाने गये और चाहते थे कि हनुमान जी उनकी पीठ पर बैठकर चलें तो शीघ्र रामजी के पास पहुँच जायेंगे। हनुमानजी ने उनके साथ जाने को मनाकर दिया और कहा कि ‘मैं आता हूँ।’ वापिस लौटने पर गरुड़ ने रामजी के पास जाकर देखा कि हनुमान जी रामजी से वार्ता करके लौट रहे हैं। तब वह अपनी गति के अभिमान पर लज्जित हुआ। इन प्रसंगों से पता चलता है कि अहंकार सबके कार्यों में बाधा डालता है।
मुझे भी कई बार यह अभिमान हुआ कि मैं सभी छात्रों से अधिक बुद्धिमान हूँ। इसका परिणाम यह हुआ कि मेरे मित्र भी मुझसे दूरी बनाने लगे। मुझे किसी का सहयोग प्राप्त नहीं हुआ। मैं अपनी कक्षा में भी पिछड़ने लगा। तब मेरे एक हितैषी अध्यापक ने बड़े प्रेम से मुझे समझाया कि मेरे मन में बैठा अहंकार ही मेरे मार्ग में बाधा बन गया है। मैंने धीरे-धीरे अपने अन्दर बैठे अभिमान को दूर किया और पुनः अपने मित्रों का सहयोग मुझे मिलने लगा। कहाँ तो मैं समझता था कि मुझे सब कुछ आता है, लेकिन परीक्षा में बहुत कम अंक आने पर मुझे ज्ञात हुआ कि मेरा अभिमान ही मेरे विकास में बाधा डाल रहा था। अब मैं अभिमान से रहित होकर अपने पथ पर तीव्रगति से अग्रसर हो रहा हूँ।
तुलसीदास जी ने अभिमान को पाप का मूल बताया है–
“दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िये, जब लगि घट में प्रान।”