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जीवधारियों की विभिन्न जातियों के उद्भव के सम्बन्ध में डार्विन के क्या विचार हैं ?

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1. डार्विन के प्राकृतिक वरणवाद के अनुसार, जीव विविधता, अनुकूलन की वंशागतिकी तथा प्राकृतिक वरण द्वारा नयी जातियों को निम्नलिखित चरणों में पैदा करते हैं -
2. अधिक सन्तानोत्पत्ति के बावजूद किसी सीमित क्षेत्र में भोजन , वायु , प्रकाश , जल की एक निश्चित माता की उपलब्ध है । अतः नये उत्पादित जीवों में जीवन के लिए जरुरी चीजों के लिए आपस में संघर्ष होता है । यह संघर्ष एक जाति के सदस्यों के बीच, दूसरी जातियों से तथा वातावरणीय कारकों से भी होता है।
3. विभिन्नताएँ एवं आनुवंशिकता - एक ही जाति के जीवों में पाए जाने वाली भिन्नताओं या अंतर को विभिन्नता कहते हैं । विभिन्नताएँ जीवन संघर्ष के दौरान विविध परिस्थितियों के अनुकूलन के कारण पैदा होती हैं । उपयोगी विभिन्नता वाले जीवों में अधिक सामर्थ्य होने के कारण जीवों का क्रमशः समाप्त कर देती हैं । उपयोगी विभिन्नता वाले जीव अपना गन संततियों में पहुँचाते रहते हैं । इस वंशागति से ही नयी जातियों का उद्भव होता है ।
4 . समर्थ का जीवत्व - जीवन संघर्ष में योग्यतम अर्थात उपयोगी विभिन्नताओं वाले जीव सफल होते हैं प्रकृति इन जीवों का संरक्षण करती है तथा इन सन्ततियों में भिन्नताएँ एकत्रित होती जाती हैं, जबकि जो जीव प्रकृति के अनुरूप और अनुकूल अपने आप को नहीं रख पते हैं, धीरे धीरे नष्ट हो जाते हैं, समर्थ का जीवत्व तथा असमर्थ की मृत्यु को ही प्राकृतिक वरण कहा जाता हैं ।
5 . वातावरण के प्रति अनुकूलन - वातावरण निरंतर परिवर्तनशील है । इस परिवर्तन के अनुकूलन या अनुरूप जो जीव अपने आपको योग्य नहीं बना पाता, उसमे विकृतियाँ जन्म लेती हैं और वह नष्ट हो जाता है, जबकि जो जीव प्रकृति के अनुरूप योग्य बना रहता है वह जीवित रहता है मीसोजोइक युग के विशालकाय सरीसृपों का साम्राज्य वातावरण की बदली परिस्थितियों के प्रति अपने आपको अनुकूल न बना पाने के कारण समाप्त हो गया ।
6. नयी जातियों की उत्पत्ति - डार्विन के मतानुसार वातावरण के प्रति अनुकूलन से पैदा हुई विभिन्नताएँ धीरे-धीरे पीढ़ी-दर-पीढ़ी एकत्रित होती जाती हैं, जिससे एक जाति के जीव अपने पूर्वजों से भिन्न होते जाते हैं । धीरे -धीरे भिन्नताएँ इतनी बढ़ जाती हैं, कि नये जीव एक अलग जाति के रूप में बदल जाते हैं ।

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