निर्देशन का अर्थ
‘निर्देशन’ सामाजिक सम्पर्को पर आधारित एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसमें किसी व्यक्ति द्वारा अन्य किसी व्यक्ति को इस प्रकार से सहायता प्रदान की जाती है कि वह अपनी जन्मजात और अर्जित योग्यताओं व क्षमताओं को समझते हुए अपनी समस्याओं का स्वतः समाधान करने में उपयोग कर सके।
निर्देशन की परिभाषा
प्रमुख विद्वानों के अनुसार निर्देशन को निम्नलिखित रूप से परिभाषित किया जा सकता है।
⦁ स्किनर के शब्दों में, “निर्देशन एक प्रक्रिया है जो कि नवयुवकों को स्वयं अपने से, दूसरे से तथा परिस्थितियों से समायोजन करना सिखाती है।
⦁ जोन्स के अनुसार, “निर्देशन एक ऐसी व्यक्तिगत सहायता है जो एक व्यक्ति द्वारा दूसरे को, जीवन के लक्ष्यों को विकसित करने व समायोजन करने और लक्ष्यों की प्राप्ति में आयी हुई समस्याओं को हल करने के लिए प्रदान की जाती है।”
⦁ मॉरिस के मतानुसार, “निर्देशन व्यक्तियों की स्वयं अपने प्रयत्नों से सहायता करने की एक क्रिया है जिसके द्वारा वे व्यक्तिगत सुख और सामाजिक उपयोगिता के लिए अपनी समस्याओं का पता लगाते हैं। तथा उनका विकास करते हैं।’
⦁ हसबैण्ड के अनुसार, “निर्देशन व्यक्ति को उसके भावी जीवन के लिए तैयार करने, समाज में उसको अपने स्थान के उपयुक्त बनाने में सहायता देने की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।”
⦁ शिक्षा मन्त्रालय भारत सरकार के अनुसार, “निर्देशन एक क्रिया है जो व्यक्ति को शिक्षा, जीविका, मनोरंजन तथा मानव क्रियाओं के समाज सेवा सम्बन्धी कार्यों को चुनने, तैयार करने, प्रवेश करने तथा वृद्धि करने में सहायता प्रदान करती है।”
निर्देशन की आवश्यकता, महत्त्व एवं उपयोगिता
निर्देशन की आवश्यकता हर युग में महसूस की जाती है । सदा-सर्वदा से उसके महत्त्व एवं योगदान को मान्यता प्राप्त हुई है तथा मानव-जीवन के लिए उसकी उपयोगिता भी सन्देह की दृष्टि से दूर एक सर्वमान्य तथ्य है, किन्तु मनुष्य की अनन्त इच्छाओं ने उसकी आवश्यकताओं को बढ़ाकर उसके व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा व्यावसायिक जीवन में अभूतपूर्व संकट और जटिलता उत्पन्न कर दी है। शायद इन्हीं कारणों से वर्तमान काल के सन्दर्भ में निर्देशन की आवश्यकता निरन्तर बढ़ती जा रही है। चिन्तन-मनन करने पर जीवन में निर्देशन की आवश्यकता हम अग्रलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत करते हैं
1. व्यक्ति के दृष्टिकोण से निर्देशन की आवश्यकता :
मानव-जीवन की जटिलता ने पग-पग पर नयी-नयी समस्याओं और संकटकालीन परिस्थितियों को जन्म दिया है। मनुष्य का कार्य-क्षेत्र विस्तृत हो रहा है और उसकी नित्यप्रति की आवश्यकमाओं में वृद्धि हुई है। बढ़ती हुई आवश्यकताओं तथा धार्मिक विषमताओं ने मनुष्य को व्यक्तिगत, धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से प्रभावित किया है। जीवन के हर एक क्षेत्र में समस्याओं के मोर्चे खुले हैं, जिनसे निपटने के लिए भौतिक एवं मानसिक दृष्टि से निर्देशन की अत्यधिक आवश्यकता है।
2. औद्योगीकरण से उत्पन्न समस्याएँ :
मनुष्य प्राचीन समय में अधिकांश कार्य अपने हाथों से किया करता था, किन्तु आधुनिक युग मशीनों का युग’ कहा जाता है। तरह-तरह की मशीनों के
आविष्कार से उद्योग-धन्धों का उत्पादन बढ़कर कई गुना हो गया है, किन्तु उत्पादन की प्रक्रिया जटिल-से-जटिल होती जा रही है। औद्योगिक दुनिया के विस्तार से नये-नये मानव सम्बन्ध विकसित हुए हैं जिनके मध्य सन्तुलन स्थापित करने की दृष्टि से निर्देशन बहुत आवश्यक है।
3. नगरीकरण से उत्पन्न समस्याएँ :
क्योंकि अधिकांश उद्योग-धन्धे तथा कल-कारखाने बड़े-बड़े नगरों में कायम हुए, इसलिए पिछले अनेक दशकों में लोगों का प्रवाह गाँवों से नगरों की ओर हुआ। नगरों में तरह-तरह की सुख-सुविधाओं, मनोरंजन के साधनों, शिक्षा की व्यवस्था, नौकरी के अवसर तथा सुरक्षा की भावना ने नगरों को आकर्षण का केन्द्र बना दिया। फलस्वरूप नगरों की संरचना में काफी जटिलता आने से समायोजन सम्बन्धी बहुत प्रकार की समस्याएँ भी उभरीं। नगरीय जीवन से उपयुक्त समायोजन करने हेतु निर्देशन की परम आवश्यकता महसूस होती है।
4. जाति-प्रथ का विघटन :
आजकल जाति और व्यवसाय का आपसी सम्बन्ध टूट गया है। इसका प्रमुख कारण जाति-प्रथा का विघटन है। पहले प्रत्येक जाति के बालकों को अपनी जाति के व्यवसाय का प्रशिक्षण परम्परागत रूप से उपलब्ध होता था।
उदाहरणार्थ :
ब्राह्मण का बेटा पण्डिताई व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करता था, लोहार का बेटा लोहारी और बनिये का बेटा व्यापार। यह व्यवस्था अब प्राय: समाप्त हो गयी है। इन परिवर्तित दशाओं ने व्यवसाय के चुनाव तथा प्रशिक्षण दोनों ही क्रियाओं के लिए निर्देशन की आवश्यकताओं को जन्म दिया है।
5. व्यावसायिक बहुलता :
वर्तमान समय में अनेक कारणों से व्यवसायों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप कार्य के प्रत्येक क्षेत्र में विशेषीकरण की समस्या भी बढ़ी है। व्यावसायिक बहुलता और विशेषीकरण के विचार ने प्रत्येक बालक और किशोर के सम्मुख यह एक गम्भीर समस्या खड़ी कर दी है कि वह इतने व्यवसायों के बीच से सम्बन्धित प्रशिक्षण किस प्रकार प्राप्त करे,? निश्चय ही, इस समस्या का हल निर्देशन से ही सम्भव है।
6. मन के अनुकूल व्यवसाय का न मिलना :
बेरोजगारी की समस्या आज न्यूनाधिक विश्व के प्रत्येक देश के सम्मुख विद्यमान है। आज हमारे देश में नवयुवक को मनोनुकूल, अच्छा एवं उपयुक्त व्यवसाय मिल पाना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। हर कोई उत्तम व्यवसाय प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षा रखता है, किन्तु रोजगार के अवसरों का अभाव उसे असफलता और निराशा के अतिरिक्त कुछ नहीं दे पाता। आज निराश, चिन्तित, तनावग्रस्त तथा उग्र बेरोजगार युवकों को सही दिशा दिखलाने की आवश्यकता है। उन्हें देश की आवश्यकताओं के अनुकूल तथा जीवन के लिए हितकारी शारीरिक कार्य करने की प्रेरणा देनी होगी। यह कार्य निर्देशन द्वारा ही सम्भव है।
7. विशेष बालकों की समस्याएँ :
विशेष बालकों से हमारा अभिप्राय पिछड़े हुए/मन्दबुद्धि या प्रतिभाशाली ऐसे बालकों से है जो सामान्य बालकों से हटकर होते हैं। ये असामान्य व्यवहार प्रदर्शित करते हैं तथा सामाजिक परिस्थितियों में स्वयं को आसानी से अनुकूलित नहीं कर पाते। कुसमायोजन के कारण … इनके सामने नित्यप्रति नयी-नयी समस्याएँ आती रहती हैं। ऐसे असामान्य एवं विशेष बालकों की समस्याएँ निर्देशन के माध्यम से ही पूरी हो सकती हैं।
8. शैक्षिक विविधता सम्बन्धी समस्याएँ :
शिक्षा के विविध क्षेत्रों में हो रहे अनुसन्धान कार्यों के कारण ज्ञान की राशि निरन्तर बढ़ती जा रही है, जिससे एक ओर ज्ञान की नवीन शाखाओं का जन्म हुआ है। तो दूसरी ओर हर सत्र में नये पाठ्यक्रमों का समावेश करना पड़ रहा है। इसके अतिरिक्त, सामान्य शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त प्रत्येक बालक के सामने यह समस्या आती है कि वह शिक्षा के विविध क्षेत्रों में से किस क्षेत्र को चुने और उसमें विशिष्टीकरण प्राप्त करे।
समाज की निरन्तर बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जो नये एवं विशेष व्यवसाय जन्म ले रहे हैं उनके लिए किन्हीं विशेष पाठ्य-विषयों का अध्ययन अनिवार्य है। विभिन्न व्यवसायों की सफलता भिन्न-भिन्न बौद्धिक एवं मानसिक स्तर, रुचि, अभिरुचि, क्षमता व योग्यता पर आधारित है। व्यक्तिगत भिन्नताओं का ज्ञान प्राप्त करके उनके अनुसार बालक को उचित शैक्षिक मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए निर्देशन की जबरदस्त माँग है।
9. पाश्चात्य सभ्यता से समायोजन :
आज के वैज्ञानिक युग में दो देशों के मध्य दूरी कम होने से पृथ्वी के दूरस्थ देश, उनकी सभ्यताएँ, संस्कृतियाँ, परम्पराएँ तथा रीति-रिवाज एक-दूसरे के काफी नजदीक आ गये हैं। अंग्रेजों के पदार्पण एवं शासन ने भारतीयों के मस्तिष्क पाश्चात्य सभ्यता में रंग डाले थे। वर्तमान समय में टी० बी० के विभिन्न चैनलों के माध्यम से पश्चिमी देशों के भौतिकवादी आकर्षण ने भारतीय युवाओं को इस सीमा तक सम्मोहित किया है कि वे अपने पुराने रीति-रिवाज और परम्पराएँ भुला बैठे हैं—एक प्रकार से भारतीय मूल्यों की अवमानना व उपेक्षा हो रही है। इससे असंख्य विसंगतियाँ तथा कुसमायोजन के दृष्टान्त दृष्टिगोचर हो रहे हैं। इनके दुष्प्रभाव से भारतीय युवाओं को बचाने लिए विशिष्ट निर्देशन की आवश्यकता है।
10. यौन सम्बन्धी समस्याएँ :
काम-वासना एक नैसर्गिक मूल-प्रवृत्ति हैं जो युवावस्था में विषमलिंगी व्यक्तियों में एक-दूसरे के प्रति अपूर्व आकर्षण पैदा करती है, किन्तु समाज की मान-मर्यादाओं तथा रीति-रिवाजों की सीमाओं को लाँघकर पुरुष एवं नारी का पारस्परिक मिलन नाना प्रकार की अड़चनों से भरा हैं। सम्मज ऐसे मिलन का घोर विरोध करता है। आमतौर पर काम-वासना की इस मूल-प्रवृत्ति का अवदेमने होने से व्यक्ति में ग्रन्थियाँ बन जाती हैं तथा उसका व्यवहार असामान्य हो जाता है। यौन सम्बन्धों के कारण जनित विकृतियों में सुधार लाने के लिए तथा व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी निर्देशन की आवश्यकता होती है।
11. व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास :
व्यक्तिगत एवं सामाजिक हित में मानव-शक्ति का सही दिशा में अधिकतम उपयोग अनिवार्य है, जिसके लिए व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास की आवश्यकता है। बालकों के व्यक्तित्व के सर्वांगीण तथा सन्तुलित विकास के लिए उन्हें घर-परिवार, पास-पड़ोस, विद्यालय तथा समाज में प्रारम्भिक काल से ही निर्देशन प्रदान करने की अतीव आवश्यकता है।