मुगलकाल की सामाजिक दशा
1. समाज का विभाजन – मुगलकालीन समाज में मुख्यत: दो वर्ग थे- उच्च वर्ग तथा निम्न वर्ग। इन दोनों वर्गों के बीच मध्यम वर्ग (हकीम, दुकानदार आदि) भी था, जो संख्या में बहुत कम होने के कारण नगण्य-सा माना जा सकता है। मुगलकालीन समाज सामन्तवादी प्रथा पर आधारित था, जो मध्ययुग की एक विशेषता रही है। समाज में सर्वोच्च स्थान बादशाह तथा उसके उन सम्मानित सामन्तों के होते थे, जिनका सम्राट से सीधा सम्पर्क होता था तथा जिनको विविध प्रकार के ऐश्वर्य तथा विशेषाधिकार प्राप्त थे। यद्यपि इस सामन्त वर्ग आरम्भ में विदेशी लोगों का वर्चस्व था, परन्तु मुगल सामन्त भारत से बाहर कभी धन नहीं ले गए। इसलिए विदेशी सामन्त वर्ग के होते हुए भी उसका दुष्प्रभाव देश की आर्थिक स्थिति पर नहीं पड़ा।
इस सामन्त वर्ग के नीचे छोटे कर्मचारियों द्वारा निर्मित मध्यम वर्ग था तथा भारत की अधिकांश जनता, जो ग्रामों में रहकर कृषि अथवा घरेलू उद्योग-धन्धे करती थी, निम्न वर्ग में आती थी। मुगलकाल में सल्तनत काल के समान समाज हिन्दू और मुसलमान वर्गों में विभाजित नहीं था। यह काल हिन्दू तथा मुस्लिम संस्कृति के बीच सामंजस्य का काल रहा। अकबर के काल से सामन्त तथा निम्न दोनों ही वर्गों में हिन्दू तथा मुसलमान समान रूप से सम्मिलित थे।
2. वस्त्राभूषण – मुगलकाल में बादशाह तथा उसका सामन्त वर्ग बहुमूल्य वस्त्रों का प्रयोग करता था। जरी के बहुमूल्य वस्त्र, रेशमी तथा मलमल के वस्त्रों का उच्च वर्ग में प्रयोग होता था। ढाका की मलमल तथा मुर्शीदाबाद का रेशम उस समय अत्यधिक प्रसिद्ध थे। उच्च सामन्त वर्ग के सभी व्यक्तियों की, चाहे वे मुसलमान हों अथवा हिन्दू, वेशभूषा समान थी तथा जाति-चिह्न के बिना उन्हें पहचान पाना असम्भव था। बादशाह भेट तथा खिलअत के रूप में अमीरों को बहुमूल्य वस्त्र प्रदान करता था तथा अबुल फजल के कथनानुसार उसे अकबर के लिए प्रतिवर्ष 1000 पोशाक निर्मित करवानी पड़ती थीं। उच्च वर्ग में अचकन तथा पाजामा पहनने का रिवाज था, परन्तु साधारण हिन्दू वर्ग अधिकतर धोती-कुर्ता पहनता था। आभूषणों का प्रयोग दोनों जातियाँ समान रूप से करती थीं
3. आमोद-प्रमोद – मुगलकाल में आमोद-प्रमोद के प्रमुख साधन शिकार, पोलो, पशु-युद्ध, कुश्ती लड़ना तथा कबूतर उड़ाना थे। घरेलू खेलों में चौपड़, पासा तथा शतरंज के खेल प्रमुख थे। उच्च वर्ग के लोग मदिरापान के दुर्व्यसन से वंचित नहीं थे वरन् मुगल सम्राटों का मदिरापान तथा अफीम सेवन का व्यसन तो विख्यात है। बाबर के आमोद-प्रमोद, हुमायूँ का अफीम के नशे में मस्त रहना, अत्यधिक मदिरापान के कारण अकबर के दो पुत्रों की अल्पायु में ही मृत्यु हो जाना और जहाँगीर का मदिरा प्रेम आदि बातें इस मत की पुष्टि करती हैं।
4. स्त्रियों की दशा – इस समय समाज में स्त्रियों का कोई स्थान नहीं था। वे केवल विलास के लिए उपयुक्त समझी जाती थीं। बहुविवाह प्रथा, पर्दा प्रथा तथा अशिक्षा के दुर्गुणों ने स्त्री-समाज को पतित बना दिया था, तथापि कुछ प्रसिद्ध स्त्रियाँ इस काल में भी हुई, जिनमें गुलबदन बेगम, नूरजहाँ, जहाँआरा, रोशनआरा तथा जेबुन्निसा के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त अहमदनगर की चाँदबीबी, गोंडवाना की दुर्गाबाई, शिवाजी की माता जीजाबाई तथा राजाराम की विधवा पत्नी ताराबाई भी नारी-रत्न थी, जिन्होंने अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करके ख्याति प्राप्त की। हिन्दू स्त्रियों में बाल-विवाह, सती–प्रथा आदि अनेक कुप्रथाएँ विद्यमान थीं, जिसके कारण उनके समाज का घोर अध:पतन हो रहा था।
5. सामाजिक पतन – शाहजहाँ के शासनकाल के अन्तिम वर्षों में भारतीय समाज के पतन के चिह्न स्पष्टतः दृष्टिगोचर होने लगे थे तथा औरंगजेब के काल में सामाजिक पतन आरम्भ हो गया था। इस समय उच्च सामन्त वर्ग की नैतिकता, पवित्रता, साहस तथा शक्ति विनष्ट हो गई थी। विलासिता, मदिरापान तथा दुराचार उस समाज के सामान्य अवगुण बन गए थे। अमीर रिश्वतखोरी तथा भ्रष्टाचार में लिप्त रहते थे तथा राजदरबार में कुचक्र एवं षड्यन्त्र रचना उनका एकमात्र कार्य रह गया था। मस्जिदों में भी ये सामान्य दुर्गुण दृष्टिगोचर हो रहे थे। उच्च वर्ग के साथ-साथ अन्य वर्गों का नैतिक पतन भी होने लगा था। सरकारी कर्मचारी निर्लज्जतापूर्वक रिश्वत लेते थे तथा प्रजा पर अत्याचार करते थे, जिनको रोकने वाला कोई नहीं था। औरंगजेब के पश्चात मुगल सम्राट प्रजा के प्रति अपने समस्त कर्तव्यों को भूलकर विलासिता में लिप्त हो गए। इस प्रकार 18 वीं शताब्दी में भारत के सामाजिक पतन की पराकाष्ठा हो गई। अशिक्षा, नैतिक पतन, अधर्म, भ्रष्टाचार और मदिरापान आदि दुर्गुणों ने समाज को अधोगति तक पहुँचा दिया।
6. सामाजिक प्रथाएँ – मुगलकाल में हिन्दू व मुस्लिम दोनों जातियों में अनेक प्रकार की सामाजिक रूढ़ियाँ तथा प्रथाएँ समान रूप से विद्यमान थीं। दोनों ही ज्योतिष में विश्वास रखते थे, पीरों के मजारों की पूजा करते थे तथा गुरु की भक्ति करते थे। इस समय समाज में समान रूप से अन्धविश्वास तथा अनेक कुप्रथाएँ पनप चुकी थीं। हिन्दुओं में सती प्रथा, बाल-विवाह प्रथा तथा दहेज की प्रथाएँ प्रचलित थीं। विधवा पुनर्विवाह पंजाब तथा महाराष्ट्र के कुछ भागों के अतिरिक्त अन्य कहीं प्रचलित नहीं था। हिन्दुओं के प्रमुख त्योहार होली, दीवाली, रक्षाबन्धन आदि थे, जिन्हें मुसलमान भी उत्साहपूर्वक मनाते थे। मुसलमानों के त्योहार ईद तथा मुहर्रम को हिन्दू लोग भी मनाते थे।
यद्यपि हिन्दू समाज में इस समय छुआछूत तथा जाति-भेद विद्यमान था तथापि हिन्दू वर्ग की सहिष्णुता की भावना ने उनको मुसलमानों के अधिक निकट ला दिया था। उच्च वर्ग के अतिरिक्त साधारण वर्ग सामान्यतः ईमानदार तथा धर्मभीरु था। ट्रैवनियर ने लिखा है- “नैतिकता में हिन्दू अच्छे हैं, विवाह करने पर वे कदाचित ही अपनी पत्नियों के प्रति अश्रद्धा और अविश्वास रखते हैं। उनमें व्यभिचार का अभाव है और उनके अस्वाभाविक अपराधों के विषय में तो कभी कोई सुनता ही नहीं है। इस प्रकार दरिद्र होते हुए भी साधारण प्रजा का चरित्र उच्चकोटि का था तथा वह सामान्यत: मितव्ययी होने के कारण सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करती थी।
मुगलकाल की आर्थिक दशा – मुगलों के शासनकाल में भारत एक समृद्ध देश था, जिसका प्रमुख श्रेय यहाँ के व्यापारियों को था, जिन्होंने विदेशों के साथ व्यापारिक सम्पर्क स्थापित करके देश को सोने-चाँदी तथा बहुमूल्य पत्थरों से परिपूर्ण कर दिया। यद्यपि इस समय भी भारत एक कृषिप्रधान देश ही था तथा यहाँ की अधिकांश ग्रामीण जनता की जीविका कृषि पर निर्भर करती थी, परन्तु कृषि तथा व्यापार के सुन्दर सामंजस्य के कारण देश में समृद्धि थी तथा आवश्यक वस्तुओं के मूल्य कम थे।
‘हुमायूँनामा’ में भारत में प्रचलित सस्ते मूल्यों का विवरण प्राप्त होता है। इसके अनुसार अमरकोट में एक रुपए में एक बकरा बिकता था। इसी प्रकार अन्य खाद्य सामग्री भी काफी सस्ती थी। अकबर के कृषि सम्बन्धी तथा आर्थिक सुधारों के कारण भाव और भी सस्ते हो गए तथा दरिद्रों को भी पर्याप्त मात्रा में खाद्य सामग्री उपलब्ध थी। उस समय दरिद्रों की दशा चिन्तनीय नहीं थी। तथा वे सन्तोषपूर्वक जीवन व्यतीत करते थे।
1. कृषि – सदैव की भाँति मुगलकाल में भी भारत का प्रमुख व्यवसाय कृषि ही था। अकबर के भूमि सुधारों से कृषकों की दशा में सुधार हुआ। गन्ना, नील, कपास तथा रेशम प्रमुख उत्पादित वस्तुएँ थीं। तम्बाकू की कृषि भी मुगलकाल में आरम्भ हो गई थी। कृषि के सामान्य उपकरण अधिकतर वही थे, जो आज तक प्रचलित हैं। सिंचाई के उपयुक्त साधनों के अभाव में कृषक अधिकतर प्रकृति पर निर्भर रहते थे तथा अतिवृष्टि या अनावृष्टि के समय दुर्भिक्ष पड़ने पर उनकी दशा अत्यन्त दयनीय हो जाती थी। सरकार की सहायता मिलने पर भी उनकी स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं होता था। अकाल के पश्चात महामारी का प्रकोप होता था, जिससे असंख्य व्यक्ति मृत्यु के शिकार हो जाते थे। दुर्भिक्ष के अतिरिक्त बहुधा युद्धों तथा सेनाओं के आवागमन के कारण भी कृषकों को काफी कष्ट उठाना पड़ता था और बादशाह की निरन्तर चेतावनी के उपरान्त भी कई बार सैनिक उनके खेतों को रौंद डालते थे।
अकबर के पश्चात जहाँगीर तथा शाहजहाँ के काल में अनेक बार दुर्भिक्ष पड़ा, जिसके कारण जनता की दशा इतनी शोचनीय हो गई कि उसका वर्णन करना असम्भव है। इस काल में आने वाले विदेशी यात्रियों ने दुर्भिक्ष पीड़ितों की दयनीय दशा का वर्णन किया है। यातायात के समुचित साधनों के अभाव में उनकी दशा बद से बदतर हो जाती थी। 18 वीं शताब्दी की अराजकता तथा अव्यवस्था में तो कृषकों की दशा अत्यन्त दयनीय हो गई और वे ऋणग्रस्त हो गए।
2. उद्योग-धन्धे – यद्यपि मुगलकाल में आधुनिक ढंग की मशीनें तथा कारखाने उपलब्ध नहीं थे परन्तु हस्त उद्योग-धन्धे उस काल में प्रचलित थे तथा अपने देश की खपत से अधिक माल तैयार करके व्यापारीगण भारत का बना हुआ माल विदेशों में भी ले जाते थे। व्यापार द्वारा भारत को लाभ होता था, जिससे देश उत्तरोत्तर धनी बनता जा रहा था। इस समय भारत का सबसे महत्वपूर्ण उद्येाग कपड़ा बुनना, राँगाई तथा छपाई करना था।
बंगाल तथा बिहार के प्रान्त सूती कपड़ा बुनने के लिए प्रसिद्ध थे, जहाँ प्रत्येक घर में कपड़ा बुना जाता था। ऊनी वस्त्र कश्मीर में निर्मित किए जाते थे। गुजरात भी सूती वस्त्रों के लिए विख्यात था। यहाँ के व्यापारियों की ईमानदारी की प्रशंसा बारबोसा तथा मनूची जैसे विदेशी यात्रियों ने भी की है।
वस्त्र उद्योग के अतिरिक्त अन्य छोटे-छोटे उद्योग-धन्धे भी इस समय भारत में प्रचलित थे। विदेशों के साथ व्यापार करने के लिए जहाजों का भी निर्माण होता था। यद्यपि भारतीय बहुत उत्तम जहाज निर्मित करना नहीं जानते थे तथापि यह उद्योग भी इस समय प्रचलित था। विविध प्रकार के टूक, कलमदान, शमादान, अलंकृत तश्तरियाँ. छोटी-छोटी सन्दकचियाँ तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुएँ, जो सामन्तों के आवासगृहों को सुसज्जित करने के काम में आती थीं, भारत में निर्मित होती थीं।