श्री रामधारीसिंह ‘दिनकर’ द्वारा विरचित खण्डकाव्य ‘रश्मिरथी’ की कथा महाभारत से ली गयी है। इस काव्य में परमवीर एवं दानी कर्ण की कथा है। इस खण्डकाव्य की कथावस्तु सात सर्गों में विभाजित है, जो संक्षेप में निम्नवत् है-
प्रथम सर्ग : कर्ण का शौर्य-प्रदर्शन
प्रथम सर्ग के आरम्भ में कवि ने अग्नि के समान तेजस्वी एवं पवित्र पुरुषों की पृष्ठभूमि बनाकर कर्ण का परिचय दिया है। कर्ण की माता कुन्ती और पिता सूर्य थे। कर्ण कुन्ती के गर्भ से कौमार्यावस्था में उत्पन्न हुए थे, इसलिए कुन्ती ने लोकलाज के भय से उस नवजात शिशु को नदी में बहा दिया, जिसे एक निम्न जाति (सूत) के व्यक्ति ने पकड़ लिया और उसका पालन-पोषण किया। सूत के घर पलकर भी कर्ण शूरवीर, शीलवान, पुरुषार्थी और शस्त्र व शास्त्र मर्मज्ञ बने।
एक बार द्रोणाचार्य ने कौरव व पाण्डव राजकुमारों के शस्त्र-कौशल का सार्वजनिक प्रदर्शन किया। सभी लोग अर्जुन की बाण-विद्या पर मुग्ध हो गये, किन्तु तभी धनुष-बाण लिये कर्ण भी सभा में उपस्थित हो गया और उसने अर्जुन को द्वन्द्व-युद्ध के लिए चुनौती दी
आँख खोलकर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार ।
फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कारे ॥
कर्ण की इस चुनौती से सम्पूर्ण सभा आश्चर्यचकित रह गयी, तभी कृपाचार्य ने उसका नाम, जाति और गोत्र पूछे। इस पर कर्ण ने अपने को सूत-पुत्र बतलाया। फिर कृपाचार्य ने कहा कि राजपुत्र अर्जुन से समता प्राप्त करने के लिए तुम्हें पहले कहीं का राज्य प्राप्त करना चाहिए। इस पर दुर्योधन ने कर्ण की वीरता से मुग्ध होकर, उसे अंगदेश का राजा बना दिया और अपना मुकुट उतारकर कर्ण के सिर पर रख दिया। इस उपकार के बदले भावविह्वल कर्ण सदैव के लिए दुर्योधन का मित्र बन गया। इधर कौरव कर्ण को ससम्मान अपने साथ ले जाते हैं और उधर कुन्ती भाग्य की दु:खद विडम्बना पर मन मसोसती लड़खड़ाती हुई अपने रथ के पास पहुँचती है।
द्वितीय सर्ग : आश्रमवास
द्वितीय सर्ग का आरम्भ परशुराम के आश्रम-वर्णन से होता है। पाण्डवों के विरोध के कारण द्रोणाचार्य ने जब कर्ण को अपना शिष्य नहीं बनाया तो कर्ण परशुराम के आश्रम में धनुर्विद्या सीखने के लिए जाता है। परशुराम क्षत्रियों को शिक्षा नहीं देते थे। कर्ण के कवच और कुण्डल देखकर परशुराम ने उसे ब्राह्मण कुमार समझा और अपना शिष्य बना लिया।
एक दिन परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर सो रहे थे कि तभी एक विषैला कीट कर्ण की जंघा को काटने लगा। गुरु की निद्रा न खुल जाए, इस कारण कर्ण अपने स्थान से हिला तक नहीं। जंघा से बहते रक्त की धारा के स्पर्श से परशुराम की निद्रा टूट गयी। कर्ण की इस अद्भुत सहनशक्ति को देखकर परशुराम ने कहा कि ब्राह्मण में इतनी सहनशक्ति नहीं होती, इसलिए तू अवश्य ही क्षत्रिय या अन्य जाति का है। कर्ण स्वीकार कर लेता है कि मैं सूत-पुत्र हूँ। क्रुद्ध परशुराम ने उसे तुरन्त अपने आश्रम से चले जाने को कहा और शाप दिया कि मैंने तुझे जो ब्रह्मास्त्र विद्या सिखलायी है, तू अन्त समय में उसे भूल जाएगा-
सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आएगा।
है यह मेरा शाप समय पर, उसे भूल तू जाएगा ।
कर्ण गुरु की चरणधूलि लेकर आँसू भरे नेत्रों से आश्रम छोड़कर चल देता है।
तृतीय सर्ग : कृष्ण सन्देश
कौरवों से जुए में हारने के कारण पाण्डवों को बारह वर्ष का वनवास तथा एक साल का अज्ञातवास भोगना पड़ा। तेरह वर्ष की यह अवधि व्यतीत कर पाण्डव अपने नगर इन्द्रप्रस्थ लौट आते हैं। पाण्डवों की ओर से श्रीकृष्ण कौरवों से सन्धि का प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर जाते हैं। श्रीकृष्ण ने कौरवों को बहुत समझाया, परन्तु दुर्योधन ने सन्धि- प्रस्ताव ठुकरा दिया तथा उल्टे श्रीकृष्ण को ही बन्दी बनाने का असफल प्रयास किया।
दुर्योधन के न मानने पर श्रीकृष्ण ने कर्ण को समझाया कि अब तो युद्ध निश्चित है, परन्तु उसे टालने का एकमात्र यही उपाय है कि तुम दुर्योधन का साथ छोड़ दो; क्योंकि तुम कुन्ती-पुत्र हो। अब तुम ही इस । भारी विनाश को रोक सकते हो। इस पर कर्ण आहत होकर व्यंग्यपूर्वक पूछता है कि आप आज मुझे कुन्ती–पुत्र बताते हैं। उस दिन क्यों नहीं कहा था, जब मैं जाति-गोत्रहीन सूत-पुत्र बना भरी सभा में अपमानित हुआ था। मुझे स्नेह और सम्मान तो दुर्योधन ने ही दिया था। मेरा तो रोम-रोम दुर्योधन का ऋणी है।
फिर भी आप मेरे जन्म का रहस्य युधिष्ठिर को मत बताइएगा; क्योंकि मेरे जन्म का रहस्य जानने पर वे ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण अपना राज्य मुझे दे देंगे और मैं वह राज्य दुर्योधन को दे डालूंगा-
धरती की तो है क्या बिसात ?
आ जाये अगर बैकुण्ठ हाथ ।
उसको भी न्यौछावर कर दें,
कुरुपति के चरणों पर धर हूँ॥
इतना कहकर और श्रीकृष्ण को प्रणाम कर कर्ण चला जाता है।
इस सर्ग की कथा से जहाँ हमें श्रीकृष्ण के महान् कूटनीतिज्ञ और अलौकिक शक्तिसम्पन्न होने की विशिष्टता दृष्टिगोचर होती है वहीं कर्ण के अन्दर हमें सच्चे मित्र और मित्र के प्रति कृतज्ञ होने के गुण दिखाई पड़ते हैं।
चतुर्थ सर्ग : कर्ण के महादान की कथा
इस सर्ग में कर्ण की उदारता एवं दानवीरता का वर्णन किया गया है। कर्ण प्रतिदिन एक प्रहर तक याचकों को दान देता था। श्रीकृष्ण यह बात जानते थे कि जब तक कर्ण के पास सूर्य द्वारा प्रदत्त कवच और कुण्डल हैं, तब तक कर्ण को कोई भी पराजित नहीं कर सकता। इन्द्र ब्राह्मण का वेश धारण करके कर्ण के पास उसकी दानशीलता की परीक्षा लेने आये और कर्ण से उसके कवच और कुण्डल दान में माँग लिये। यद्यपि कर्ण ने छद्मवेशी इन्द्र को पहचान लिया, तथापि उसने इन्द्र को कवच और कुण्डल भी दान दे दिये। कर्ण की इस अद्भुत दानशीलता को देख देवराज इन्द्र का मुख ग्लानि से मलिन प्रड़ गया–
अपना कृत्य विचार, कर्ण का करतब देख निराला।
देवराज का मुखमण्डल पड़ गया ग्लानि से काला ॥
इन्द्र ने कर्ण की बहुत प्रशंसा की। उन्होंने कर्ण को महादानी, पवित्र एवं सुधी कहा तथा स्वयं को प्रवंचक, कुटिल व पापी बताया और कर्ण को एक बार प्रयोग में आने वाला अमोघ एकघ्नी अस्त्र प्रदान किया।