संसार में धन, धरती और स्त्री के कारण संघर्ष होते आये हैं। कौरव धन और धरती के पीछे ही पागल थे। पाण्डवों ने सोचा कि नारी (द्रौपदी) कहीं उनके पारस्परिक संघर्ष का कारण न बने; अत: नारद जी की सलाह से उन्होंने द्रौपदी को एक-एक वर्ष तक अलग-अलग अपने साथ रखने का निश्चय किया। साथ ही यह भी तय कर लिया गया कि जब द्रौपदी किसी पति के साथ हो और कोई दूसरा भाई वहाँ पहुँचकर उन्हें देख ले तो वह बारह वर्षों तक वन में रहेगा।
एक दिन चोरों ने एक ब्राह्मण की गायें चुरा लीं। वह राजभवन में न्याय और सहायता के लिए पहुँचा। अर्जुन उसकी रक्षा के लिए शस्त्रागार से शस्त्र लेने गये तो वहाँ उन्होंने द्रौपदी को युधिष्ठिर के साथ देख लिया। उन्होंने चोरों से गायें छुड़ाकर ब्राह्मण को दे दीं और नियम-भंग के कारण बारह वर्षों के लिए वन को चले गये।
अनेक स्थानों पर भ्रमण करते हुए अर्जुन द्वारका पहुँचे। वहाँ श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह करके वह इन्द्रप्रस्थ लौटे। श्रीकृष्ण भी अपनी बहन के लिए बहुत सारा दहेज लेकर इन्द्रप्रस्थ आये और बहुत दिनों तक रुके। श्रीकृष्ण और अर्जुन ने मिलकर अग्निदेव के हित हेतु खाण्डव वन का दाह किया। अग्निदेव ने प्रसन्न होकर अर्जुन को कपिध्वज नामक रथ, करूण ने गाण्डीव धनुष और दो अक्षय तृणीर उपहार में दिये। श्रीकृष्ण को अग्निदेव ने कौमोदकी गदा और सुदर्शन चक्र प्रदान किये। यहीं अग्नि की लपटों से व्याकुल मय नामक राक्षस ने सहायता के लिए आर्त पुकार की। अर्जुन ने उसे बचा लिया और उसने कृतज्ञतापूर्वक कृष्ण के कहने पर युधिष्ठिर के लिए एक अलौकिक सभा-भवन का निर्माण किया। मय दानव ने अर्जुन को ‘देवदत्त शंख और भीम को एक भारी गदा भेंट की।
युधिष्ठिर का राज्य सुख और शान्ति से चल रहा था। एक दिन देवर्षि नारद इन्द्रप्रस्थ नगरी में आये। उन्होंने पाण्डु का सन्देश देते हुए युधिष्ठिर को बताया कि यदि वे राजसूय यज्ञ करें तो उन्हें इन्द्रलोक में निवास मिल जाएगा। आयु पूर्ण हो जाने पर युधिष्ठिर भी वहाँ जाएँगे। युधिष्ठिर ने नारद के द्वारा सद्धेश भेजकर सलाह के लिए श्रीकृष्ण को द्वारका से बुलवाया और राजसूय यज्ञ की बात बतायी। श्रीकृष्ण ने कह दी कि जब तक जरासन्ध का वध न होगा, राजसूय यज्ञ सम्पन्न नहीं हो सकता। इसीलिए उन्होंने अर्जुन.और भीम को साथ लेकर मगध की राजधानी गिरिव्रज की ओर प्रस्थान किया और ब्रह्मचारी वेश में नगर में प्रवेश किया। जरासन्ध ने रुद्रयज्ञ में बलि देने के लिए दो हजार राजाओं को बन्दी बना रखा था। श्रीकृष्ण का विचार था कि जरासन्ध को मारने पर यज्ञ का मार्ग भी साफ हो जाएगा और राजाओं की मुक्ति भी हो जाएगी, किन्तु जरासन्ध को सम्मुख युद्ध में जीत पाना सम्भव नहीं था। श्रीकृष्ण ने जरासन्ध को तीनों का परिचय दिया और किसी से भी मल्लयुद्ध करने के लिए ललकारा। जरासन्ध ने भीम को ही अपने जोड़ का समझकर उससे मल्लयुद्ध करना स्वीकार कर लिया। तेरह दिन के युद्ध के बाद जरासन्ध के थक जाने पर भीम ने टाँग पकड़कर घुमा-घुमाकर उसे पृथ्वी पर पटकना शुरू कर दिया। श्रीकृष्ण के संकेत पर भीम ने उसकी एक टाँग को पैर से दबाकर दूसरी टाँग ऊपर को उठाते हुए बीच से चीर दिया। इसके बाद उन्होंने समस्त बन्दी राजाओं को मुक्त कर दिया और जरासन्ध के पुत्र सहदेव को वहाँ का राजा बनाया, जिसने युधिष्ठिर की अधीनता स्वीकार कर ली। इन्द्रप्रस्थ लौटकर श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से विदा लेकर द्वारका चले गये। युधिष्ठिर ने चारों भाइयों को दिग्विजय करने के लिए चारों दिशाओं में भेजा। चारों भाइयों ने सभी राजाओं को जीतकर युधिष्ठिर के अधीन कर दिया। इस प्रकार अब सम्पूर्ण भारत युधिष्ठिर के ध्वज के नीचे आ गया।
युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की योजनाबद्ध तैयारी प्रारम्भ कर दी। एक भव्य विशाल यज्ञशाला बनायी गयी। सभी दिशाओं में निमन्त्रण-पत्र भेजे गये। कौरवों सहित अनेकानेक राजा यज्ञ में भाग लेने के लिए इन्द्रप्रस्थ में एकत्र होने लगे। सबका यथोचित सत्कार करके उपयुक्त आवासों में ठहराया गया। वहाँ देव, मनुज और दानव सभी स्वभाव के लोग आमन्त्रित एवं एकत्रित हुए।