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आर्थिक सुधार से क्या आशय है? भारत में आर्थिक सुधार की प्रक्रिया अपनाने की क्या। आवश्यकता थी?

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आर्थिक सुधार का अर्थ
आर्थिक सुधार से आशय आर्थिक संकट को दूर करने की दृष्टि से अपनाए जाने वाले उपायों से है। सरकार ने 1991 ई० में नवीन आर्थिक नीति की घोषणा की और इस नवीन आर्थिक नीति में व्यापक आर्थिक नीतियों को सम्मिलित किया। इन सुधारों का उद्देश्य अर्थव्यवस्था में अधिक स्पर्धापूर्ण व्यावसायिक वातावरण की रचना करना और फर्मों के व्यापार में प्रवेश करना तथा उनके विकास के मार्ग । में आने वाली बाधाओं को दूर करना था। इसके अल्पकालिक एवं दीर्घकालिक दोनों ही प्रकार के उपायों की घोषणा की गई। अल्पकालिक उपायों का उद्देश्य भुगतान सन्तुलन में आ गई कुछ त्रुटियों को दूर करना और मुद्रा स्फीति को.नियन्त्रित करना था जबकि दीर्घकालिक उपायों का उद्देश्य अर्थव्यवस्था की कुशलता को सुधारना तथा अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रकों की असमानताओं को दूर कर अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धा क्षमता को संवर्धित करना था।

आर्थिक सुधारों की आवश्यकता 
भारत में 1 अप्रैल, 1951 से मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाते हुए, आर्थिक नियोजन का मार्ग अपनाया गया था। अभी तक 11 पंचवर्षीय योजनाएँ तथा पाँच एकवर्षीय योजनाएँ पूरी हो चुकी हैं। योजनाएँ अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में सफल भी रही हैं और असफल भी। सार्वजनिक क्षेत्र को अधिक महत्त्व, निजी क्षेत्र पर नियन्त्रण, उद्योग एवं व्यापार पर प्रतिबन्ध, नौकरशाही एवं लालफीताशाही ने जून 1991 के अन्छ में देश में एक अभूतपूर्व आर्थिक संकट पैदा कर दिया। विदेशी मुद्रा भण्डार में निरन्तर कमी, नए ऋणों में विलम्ब, अनिवासी खातों से धन की निकासी, निरन्तर आसमान छूती महँगाई ने अर्थव्यवस्था को डाँवाँडोल कर दिया। अतः अर्थव्यवस्था को आर्थिक संकट से निकालने, आर्थिक विकास में गति लाने, वित्तीय असन्तुलन को दूर करने, मुद्रा स्फीति को नियन्त्रित करने, भुगतान सन्तुलन को सन्तुलित करने तथा विदेशी विनिमय के भण्डार में वृद्धि करने के लिए नवीन आर्थिक नीति की घोषणा करना और आर्थिक सुधारों को अपनाना आवश्यक हो गया। संक्षेप में, भारत में आर्थिक सुधारों को अपनाने की आवश्यकता मुख्य रूप से निम्नलिखित कारणों से अनुभव की गई

⦁    अनुत्पादक व्ययों में निरन्तर वृद्धि होने के कारण सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ता जा रहा था। इसका अर्थ है कि सरकार के कुल व्यय कुल प्राप्तियों से बहुत अधिक थे जिनकी पूर्ति ऋणों द्वारा की जाती थी। इसके फलस्वरूप ऋण और ऋणों पर ब्याज में वृद्धि होती गई और सरकार के ऋण-जाल में फंसने की सम्भावना बढ़ गई। अत: इस राजकोषीय घाटे को कम करना आवश्येक था।

⦁    व्यापार सन्तुलन के निरन्तर प्रतिकूल रहने के कारण भुगतान सन्तुलन की समस्या उत्पन्न हो गई। थी। निर्यातों में वृद्धि की तुलना में आयातों में अधिक तेजी से वृद्धि हुई। घाटे को पूरा करने के लिए विदेशी ऋण लिए गए।

⦁    1991 ई० में ईराक युद्ध के कारण पेट्रोल की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई। खाड़ी संकट के कारण भुगतान सन्तुलन का घाटा बहुत अधिक बढ़ गया।

⦁    1990-91 ई० में भारत के विदेशी विनिमय कोष इतने कम हो गए थे कि वे 15 दिन के आयात के लिए भी काफी नहीं थे। उस समय की चन्द्रशेखर सरकार को विदेशी ऋण सेवा का भुगतान करने के लिए सेना गिरवी रखना पड़ा था।

⦁    मूल्य स्तर में तेजी से वृद्धि हो रही थी जिसके कारण देश की आर्थिक स्थिति काफी खराब हो गई थी। कीमतों के बढ़ने का मुख्य कारण घाटे की वित्त व्यवस्था थी।
6. सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का कार्य निष्पादन असन्तोषजनक था। ये उद्यमी परिसम्पत्ति के बजाय दायित्व बनते जा रहे थे।

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