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सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख प्रतिमानों की विवेचना कीजिए।

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सामाजिक परिवर्तन के विस्तृत प्रतिमान
सामाजिक परिवर्तन एक विस्तृत संप्रत्यय है जिसका कोई एक निश्चित प्रतिमान नहीं है। मुख्य प्रश्न हमारे सामने यह है कि सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या करने के लिए किस कारक को आधार माना जाए तो और व्याख्या करने में कौन-सी पद्धति को अपनाया जाए? विद्वानों ने इस समस्या को निमनलिखित दो प्रकार से समझाने का प्रयास किया है –

1. अन्योन्याश्रितता एवं कारकों की विविधता – जब हम समाज में होने वाले किसी भी परिवर्तन को देखते हैं तो यह ज्ञात होता है कि उसके एक नहीं बल्कि अनेक कारक हैं जो कि परस्पर भिन्न न होकर अन्योन्याश्रित है अर्थात् ये एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। किसी सामाजिक परिवर्तन को स्वीकार करने के लिए मनोधारणाओं या मनोवृत्तियों में परिवर्तन तथा मानव मनोवृत्तियों पर उसके संपूर्ण पर्यावरण एवं दशाओं का प्रभाव पड़ता है। इस परिवर्तन को समझने के लिए आर्थिक दशाओं तथा प्रौद्योगिकीय एवं राजनीतिक पक्षों से भी परिचित होना । पड़ता है।

कुछ परिवर्तन इसलिए होते रहते हैं कि हम भौतिक पर्यावरण से सांमजस्य स्थापित कर सकें। उदाहरणार्थ-यदि हम गिरती हुई जन्म-दर का अध्ययन करें तो हमें धार्मिकता, महिलाओं की बढ़ती हुई आर्थिक स्वतंत्रता, सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि, देर से विवाह, व्यक्तिवाद आदि का अध्ययन करना ही होगा। इस संयुक्त योगदान को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता; अतः बाध्य होकर सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या में हमें विविध कारकों का उत्तरदायित्व स्वीकार करना पड़ता है। ऐसा किए बिना हम सामाजिक परिवर्तन को नहीं समझ सकते। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या करने से हम किसी एक कारक को निर्णायक कारक मानकर नहीं चल सकते।

समाज में परिवर्तन लाने वाले विभिन्न कारक आपस में अंतसंबंधित हैं। यही कारण है कि वे स्वयं पूर्ण न होकर एक-दूसरे पर निर्भर हैं। किसी सामाजिक घटना का वर्णन करते समय न केवल कारकों की बहुलता या विविधता ही ध्यान में रखती है वरन् उनकी अंतर्निर्भरता को भी उतनी ही महत्ता देनी होगी। विविध कारण एक-दूसरे से मिले और गुंथे रहते हैं। अपराधों में वृद्धि का कारण हम व्यक्तिवाद को मानते हैं जिसने व्यक्ति को संयुक्त परिवार से अलग किया और संयुक्त परिवार का ह्वास करके एकाकी परिवार बसाने को प्रोत्साहित किया। अपराधों में वृद्धि का दूसरा कारक नगरीकरण माना जाता हैं क्योंकि जीविकोपार्जन हेतु गाँवों के लोग नगरों की ओर आकर्षित होते हैं और वहाँ की गन्दी बस्तियो के वातावरण में अपराध करने के अधिक अवसर मिलने पर अपराधों में भाग लेने लगते हैं। यहाँ उन्हें जनसंख्या में विविधता मिलती है।

जिससे अपराध करके भीड़भाड़पूर्ण वातावरण में छिपने की सुविधा, औद्योगिक केंद्रों में अपराधी व्यक्ति को खोज पाने की कठिनाई तथा साथ ही तीव्रगामी आवागमन के साधनों में वृद्धि के कारण एक स्थान पर अपराध करके दूसरे स्थान पर आसानी से भाग जाने की सुविधा आदि संभव होने के कारण व्यक्ति अपराधी बन जाता है। अपराध का तीसरा कारक शारीरिक एवं मानसिक रूप से कमजोरी है। ऐसे व्यक्ति अधिक अपराध करते हैं क्योंकि उनमें इतनी बुद्धि नहीं होती है कि वे अपराध एवं उससे समाज को होने वाली हानि तथा अपने पर इसके होने वाले दुष्प्रभावों के विषय के बारे में सोच सकें। यह भी हो सकता है कि व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलता का शिकार होने के कारण निराश हो और इसी कारण अपराध करता हो।

अब यह प्रश्न उठता है कि क्या वे सब कारक एक-दूसरे से स्वतन्त्र हैं? क्या व्यक्तिवाद नगरीकरण का ही परिणाम है? क्या नगरीकरण औद्योगीकरण का ही शिशु नहीं है? क्या आवागमन के साधनों में वृद्धि, नगरीकरण, व्यक्तिवाद, द्वितीयक समूहों का विकास तथा अपराध वृद्धि आदि सभी कारक पारस्परिक निर्भरता की कड़ी में नहीं बँधे हैं? समाजशास्त्रीय अध्ययनों के आधार पर आज हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि ये कारक स्वतंत्र कारक नहीं बल्कि एक-दूसरे के साथ सहयोगी व्यवस्था में बँधकर किसी सामाजिक व्यवहार को जन्म देते हैं। सामाजिक कारक आपस में तार्किक रूप से कार्य-कारण संबंधों से भी जुड़े हुए होते हैं। इस प्रकार; यह प्रमाणित हो जाता है कि सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या करने में कारकों की | विविधता तथा उनकी अन्योन्याश्रितता को भी ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक है।

2. परिमाणात्मक पद्धति की असमर्थता – कुछ विद्वान यह विश्वास करते हैं कि हर सामाजिक घटना का अध्ययन हम परिणात्मक सांख्यिकीय पद्धति के द्वारा कर सकते हैं। उदाहरणार्थअपराधों का अध्ययन करने के लिए हम संयुक्त परिवार के विघटन पर भी दृष्टिपात करते हैं। कितने संयुक्त परिवार विघटित हुए यह जानने के लिए हम संयुक्त परिवार के विघटने पर भी दृष्टिपात करते हैं। कितने संयुक्त परिवार विघटित हुए यह जानने के लिए हमें उनकी संख्या गिननी होगी जिसमें इस पद्धति का सहारा लेना होगा। परंतु सामाजिक संबंधों का एक परिमाणात्मक पहलू भी है जो अति न्यून है। भौतिक विज्ञानों के समान परिमाणात्मक पद्धति को यदि हम समाजशास्त्र में भी लागू करते हैं तो बड़ा भय उपस्थित हो जाता है। सामाजिक घटनाओं में प्राकृतिक घटनाओं के समान किसी परिस्थिति में से अलग किए जा सकने वाला कोई भाग नहीं होता है। विभिन्न भाग अपने संदर्भ में अलग होते ही अर्थहीन हो जाते हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि सामाजिक संबंध अमूर्त होते हैं क्योंकि ने तो उनका कोई भौतिक स्वरूप होता है और न ही आकार। अतः उन्हें रेखागणितीय या परिमाणात्मक पैमाने से नहीं मापा जा सकता है। साथ ही, यदि एक घटना को पैदा करने में कई कारकों का योगदान रहता है। तो उनमें से प्रत्येक कारक का कितना अलग-अलग व्यक्तिगत योगदान है, यह ज्ञात करना अति कठिन है।

उपर्युक्त दोनों परिप्रेक्ष्यों के कारण सामाजिक परिवर्तन के विस्तृत प्रतिमान के निर्धारण की समस्या और अधिक उलझ जाती है। इन समस्याओं के बावजूद समाजशास्त्री सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख विस्तृत प्रतिमानों को समझने में काफी सीमा तक सफल रहे हैं।

सामाजिक परिवर्तन समस्त समाजों में एक-सा नहीं हो सकता; अत: हमें परिवर्तन के विभिन्न प्रतिमान दृष्टिगोचर होते हैं। यदि किंही दो समाजों में परिवर्तन के समान कारक कार्य कर रहे हों तो भी यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि उन दोनों समाजों में परिवर्तन के प्रतिमान भी समान ही विकसित होंगे, क्योंकि परिवर्तन से कारकों का क्रमागत एकीकरण (Orderly integration) भी समान होगा यह आवश्यक नहीं है। इसी से दो भिन्न समाजों में परिवर्तन के एक से ही कारकों के कार्यरत रहने पर प्रतिमान भिन्न हो जाते हैं। यद्यपि सामाजिक परिवर्तन के अनेक प्रतिमान देखे जा  सकते हैं तथापि मैकाइवर एवं पेज ने निम्नलिखित तीन प्रतिमान हमारे सम्मुख प्रस्तुत किए हैं –

1. पहला प्रतिमान : रेखीय परिवर्तन – सामाजिक परिवर्तन के प्रथम प्रतिमान के अनुसार परिवर्तन यकायक होता है और फिर क्रमश: मंदगति से अनिश्चितकाल तक सदैव ऊपर की ओर होता रहता है। अतः यह परिवर्तन उत्तरोत्तर वृद्धि करता जाता है। परिवर्तन की यह रेखा सदैव ऊपर की ओर चलती रहती है। उदाहरणार्थ-हम आवागमन एवं संदेशवाहन के साधनों को ले सकते हैं। एक बार जब कोई आविष्कार हो जाता है तो उत्तरोत्तर ऊपर चला जाता है तथा अन्य अनेक नवीन आविष्कारों का मार्ग भी प्रशस्त कर देता है। प्रौद्योगिकी में होने वाले परिवर्तन भी इसी प्रकार के होते हैं। इसी प्रकार विज्ञान में होने वाले परिवर्तन भी इससे बहुत-कुछ साम्य रखते हैं। अतः निरंतर उन्नत होते प्रतिमान रेखीय प्रतिमान कहलाते हैं। इनकी उन्नति की गति तीव्र भी हो सकती है और मंद भी। मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, “वास्तव में, इस प्रकार के परिवर्तन की विशेषता उसकी यकायक में नहीं बल्कि एक उपयोगी व्यवस्था के निरंतर संचयी विकास के रूप में है जब तक कि इस व्यवस्था को उसी भाँति उत्पन्न कोई दूसरी नई व्यवस्था अचानक आकर जड़ से ही न उखाड़ फेंके।”
2. दूसरा प्रतिमान : उन्नति – अवनतिशील परिवर्तन – परिवर्तन के इस प्रतिमान के अनुसार परिवर्तन एवं विकास क्रमशः नहीं होता है वरन् एक ही स्थिति के बिलकुल विपरीत स्थिति भी तुरंत ही परिवर्तित हो जाती है। कुछ समय तक परिवर्तन का प्रवाह लगातार ऊपर की दिशा में जाता है, बाद में यह एकदम विपरीत दिशा में प्रवाहित हो जाता है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विकास और अवनति के ये सोपान परिलक्षित होते रहते हैं। आर्थिक जगत तथा जनसंख्या में होने वाले परिवर्तन इसी प्रतिमान की अभिव्यक्ति करते हैं। आर्थिक जगत में सामान्यतः अनेक उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। जनसंख्या भी बढ़ती जाती है और फिर एकदम से घटनी शुरू हो जाती है। प्रथम प्रतिमान (रेखीय परिवर्तन) में यह निश्चित है कि परिवर्तन निश्चित दिशा में सदैव ऊर्ध्वगामी होता है, किंतु इस द्वितीय प्रतिमान में कुछ पता नहीं रहता कि परिवर्तन कब अपनी विपरीत दिशा में प्रवाहित हो जाएगा जो चरमोन्नत से निम्नतम और निम्नतम से चरमोन्नत कुछ भी हो सकता है।
3. तीसरा प्रतिमान : चक्रीय परिवर्तन – परिवर्तन का यह प्रतिमान दूसरे प्रतिमान से काफी मिलता-जुलता है। यह परिवर्तन पूरे जीवन अथवा उसके कई भागों में उसी प्रकार से देखने में आता है जैसे कि प्राकृतिक जगत में। इसकी तुलना साइकिल के पहिए की भाँति चलने वाले चक्र से की जा सकती है। प्राकृतिक जगत में इस प्रकार के परिवर्तन देखने में आते हैं। मौसमों में होने वाला क्रमशः चक्रीय परिवर्तन इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। जैसे समुद्र अथवा नदी में एक के पीछे दूसरी लहरें उठती रहती हैं और उस प्रक्रिया का कोई अंत नहीं होता, ठीक उसी प्रकार परिवर्तन आदि-अंत विहीन निरंतर होता रहता है। यह चक्र मानव जीवन में भी देखा जा सकता है। मनुष्य का जन्म होता है, वह युवा होता है, वृद्ध होता है तथा मर जाता है। ये अवस्थाएँ अवश्यम्भावी है। फैशन में होने वाले परिवर्तन तथा रूढ़ियों में होने वाले परिवर्तन इसी प्रतिमान के अंतर्गत आते हैं। सांस्कृतिक विकास में भी कई बार इसी प्रतिमान को देखा जा सकता है।

इस प्रकार यद्यपि हम उपर्युक्त प्रतिमानों को व्यक्त करते हैं तथापि सभी परिवर्तनों को इन तीन प्रतिमानों के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता। कुछ परिवर्ततन ऐसे भी होते हैं जो इन तीनों में किसी भी प्रतिमान के अंतर्गत नहीं आते हैं अथवा तीनों में ही आते हैं। वस्तुतः मानव संबंधों को अधिकतर भाग गुणात्मक है; अतः जब किसी परिवर्तन में सांस्कृतिक मूल्यों का समावेश होता है तो हमारे लिए उस परिवर्तन को किसी एक प्रतिमान के अंतर्गत रखना कठिन हो जाता है। इस कठिनाई के बावजूद अधिकांश समाजशास्त्री सैद्धांतिक रूप में सामाजिक परिवर्तन के उपर्युक्त तीनों प्रतिमानों को स्वीकार करते हैं।

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