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सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारक कौन-से हैं?

या

सामाजित परिवर्तन के विभिन्न कारकों को संक्षेप में बताइए।

या

सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारकों का वर्णन कीजिए। आपकी दृष्टि से भारत में सामाजिक परिवर्तन के लिए कौन-सा कारक अधिक महत्त्वपूर्ण है और क्यों?

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सामाजिक परिवर्तन के कारक
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ समाज के विभिन्न पहलुओं में होने वाला परिवर्तन है। इसे अनेक कारण या कारक प्रोत्साहन देते हैं। सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देने वाले मुख्य कारकों का संक्षिप्त परिचय निम्नवर्णित है –

1. जैविक कारक – मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, सामाजिक परिवर्तन के दूसरे साधन, सामाजिक निरंतरता को जैविक दशा में, जनसंख्या के बढ़ाव व घटाव तथा प्राणियों व मनुष्यों की वंशानुगत दशा के ऊपर निर्भर हैं। जैविक कारकों से तात्पर्य जनसंख्या के गुणात्मक पक्ष से है जो कि वंशानुगत के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं। हमारी शारीरिक व मानसिक क्षमताएँ, स्वास्थ्य व प्रजनन दर वंशानुक्रमण व जैविक कारकों से प्रभावित होते हैं। जैवकीय कारक अप्रत्यक्ष रूप से परिवर्तन को प्रभावित करते हैं। वंशगंत मिश्रण को रोका नहीं जा सकता। इस कारण ही प्रत्येक पीढ़ी में शारीरिक अंतर पाया जाता है। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक प्रवरण और अस्तित्व के लिए संघर्ष के जैवकीय सिद्धांत भी समाज में बराबर परिवर्तन करते रहते हैं।
2. भौतिक या भौगोलिक कारक – सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न कारकों में भौतिक या भौगोलिक तत्त्वों या परिस्थितियों का विशेष योगदान रहा है। संसार की भौगोलिक परिस्थितियों में दिन-रांत परिवर्तन हो रहा है। तीव्र वर्षा, तूफान, भूकंप आदि पृथ्वी के स्वरूप में परिवर्तन करते आए हैं जिनका मनुष्य की सामाजिक दशाओं पर विशेष प्रभाव पड़ता आया है। हटिंगटन के मतानुसार, जलवायु का परिवर्तन ही सभ्यताओं और संस्कृति के उत्थान एवं पतन को एकमात्र कारण है। जिस स्थान पर लोहा और कोयला निकल आता है, वहाँ के समाज में तीव्रता से परिवर्तन होते हैं। भले ही इस कथन में पूर्ण सत्यता न हो परंतु पर्याप्त सीमा तक सत्यता अवश्य है।
3. मनोवैज्ञानिक कारक – सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न कारकों में मनोवैज्ञानिक कारकों का विशेष हाथ रहता हैं। मनुष्य का स्वभाव परिवर्तनशील है, वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सदा नवीन खोजे किया करता है और नवीन अनुभवों के प्रति इच्छित रहता है। मनुष्य की इस प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप ही मानव समाज की रूढ़ियों, परंपराओं तथा रीति-रिवाजों में परिवर्तन होते. रहते हैं। मानसिक असंतोष तथा मानसिक संघर्ष व तनाव सामाजिक संबंधों को अत्यधिक प्रभावित करते हैं तथा इनसे हत्या, आत्महत्या, अपराध, बाल अपराध, पारिवारिक विघटन आदि को प्रोत्साहन मिलता है।
4. प्रौद्योगिकीय कारक – सामाजिक परिवर्तन में प्रौद्योगिकीय कारक विशेष भूमिका रहती है; ऑगबर्न (Ogburn) के शब्दों में, “प्रौद्योगिकी हमारे वातावरण को परिवर्तित करके, जिससे कि हम अनुकूलन करते हैं, हमारे समाज को परिवर्तित करती है। यह परिवर्तन सामान्य रूप से भौतिक पर्यावरण में होता है और हम परिवर्तनों से जो अनुकूलन करते हैं उससे बहुधा प्रथाएँ और सामाजिक संस्थाएँ संशोधित हो जाती है। वास्तव में, विभिन्न आविष्कारों और औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। आज हमारे रहन-सहन, खान-पान तथा आपसी संबंधों में जो परिवर्तन दिखाई देते हैं उनका मूल कारण औद्योगिक विकास है। औद्योगिक विकास के कारण गृह उद्योग-धंधे बंद हो गए, समाज में बेकारी और भुखमरी का बोलबाला हो गया।
संक्षेप में, औद्योगिक विकास का प्रत्यक्ष प्रभाव नगरीकरण, श्रम संगठन, विशेषीकरण, बेकारी तथा प्रतियोगिता आदि के रूप में देखा जा सकता है कि प्राचीन मान्यताओं में परिवर्तन लाने में सहायक होते हैं तथा इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन लाते हैं। वैबलन (Vablen) ने सामाजिक परिवर्तन लाने में प्रौद्योगिकी को एक प्रमुख कारक माना है। प्रौद्योगिकी श्रम संगठनों, नगरीकरण, गतिशीलता, विशेषीकरण तथा सामाजिक संबंधों को प्रत्यक्षतः प्रभावित करती है। सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व पारिवारिक जीवन पर इसके अनगिनत अप्रत्यक्ष प्रभाव भी पड़ते हैं। वैबलन के अनुसार, प्रौद्योगिकी का सर्वप्रमुख प्रभाव हमारी आदतों पर पड़ता है और आदतों से विचारों का निर्माण होता है। प्रौद्योगिकी में होने वाले परिवर्तन से आदतों व विचारों में परिवर्तन हो जाता है; अत: प्रौद्योगिकी ही यह निर्धारित करती है कि हमारा सामाजिक ढाँचा तथा हमारी संस्थाएँ कैसी होंगी।
5. जनसंख्यात्मक कारक – जनसंख्या में परिवर्तन का सामाजिक परिवर्तन पर विशेष प्रभाव पड़ता है। जनसंख्या के घटने-बढ़ने का देश की आर्थिक स्थिति पर विशेष प्रभाव पड़ता हैं जिन देशों में प्राकृतिक स्रोत तो कम होते हैं, परंतु जनसंख्या अधिक होती है वहाँ निर्धनता और भुखमरी का बोलबाला रहता है। जहाँ अनुकूल व आदर्श जनसंख्या होती है वहाँ के लोगों का जीवन स्तर ऊँचा होता है। इसके साथ ही जन्म व मृत्यु दर भी परिवर्तन लाती हैं। अगर मृत्यु दर अधिक है तो जनसंख्या कम होती जाती है तथा अधिक बच्चों के जन्म को प्राथमिकता देने वाली प्रथाएँ विकसित होने लगती हैं। अगर जन्म दर अधिक है और मृत्यु दर कम है तो जनाधिक्य की समस्या पैदा हो जाती है जिससे निर्धनता, बेरोजगारी, भुखमरी आदि में वृद्धि हो जाती है। जनसंख्या में गतिशीलता (आप्रवासे तथा उत्प्रवास), जनसंख्या में औसत आयु तथा लिंग अनुपात:कुछ अन्य जनसंख्यात्मक कारक है जो कि सामाजिक परिवर्तन लाने में सहायक हैं। जनंसख्या के विकास के साथ-साथ सामाजिक मान्यताओं, प्रथाओं और रीति-रिवाजों में भी परिवर्तन आता है।
6. आर्थिक कारक – सामाजिक परिवर्तन को आर्थिक कारक भी प्रभावित करते हैं। माक्र्स ने आर्थिक कारकों को निर्णायक कारक बताया है। वर्ग-संघर्ष आर्थिक कारणों के परिणामस्वरूप ही विकसित होता है। उत्पादन के स्वरूपों, संपत्ति के स्वरूपों, व्यवसायों की प्रकृति, वितरण प्रणाली, औद्योगीकरण, श्रम-विभाजन तथा आर्थिक प्रतिस्पर्धा इत्यादि व्यक्तियों के सामाजिक संबंधों पर गहरा प्रभाव डालते हैं। अतः इनमें परिवर्तन होने पर सामजिक परिवर्तन को . प्रोत्साहन मिलता है। माक्र्स के अनुसार उत्पादन की प्रक्रिया एक ऐसे वर्ग को विकसित करती है जो कि उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार प्राप्त कर लेता है। यह वर्ग पूँजीपति वर्ग कहलाता है। पूँजीपति वर्ग उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण करके श्रमिकों को उत्पादन कार्य में नियोजित करता है। श्रमिक वस्तुओं के उत्पादन में अपना श्रम लगाते हैं और उत्पादित वस्तुओं का अधिकांश लोभ (अतिरिक्त मूल्य) पूँजीपति वर्ग ही हड़प जाता है। श्रमिकों के इस शोषण से उनमें असंतोष पैदा होता है तथा वे संगठित होकर पूँजीपति वर्ग से संघर्ष करते हैं। इसी वर्ग-संघर्ष से सामाजिक परिवर्तन आता है। माक्र्स के अनुसार हमारी सामाजिक संरचना, राजनीतिक संरचा, विचार इत्यादि सभी आर्थिक कारकों से प्रभावित होते है।
7. सांस्कृतिक कारक – सांस्कृतिक कारक का सर्वाधिक पक्ष मैक्स वेबर (Max Weber), सोरोकिन (Sorokin) तथा ऑगबर्न (Ogburn) ने लिया है। मैक्स वेबर ने विभिन्न धर्मों और व्यवस्थाओं के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि सांस्कृतिक परिवर्तन होने के कारण समाज में परिवर्तन होते हैं। सोरोकिन ने सांस्कृतिक उतार-चढ़ाव के आधार पर सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या दी है। किस सीमा तक यह सत्य भी है कि भौतिक और अभौतिक संस्कृति के स्वरूप में परिवर्तन आने से सामाजिक संबंध भी प्रभावित होते हैं। हमारे देश में पाश्चात्य संस्कृति ने भारतीय समाज में अनेक परिवर्तन किए हैं; जैसे–पर्दा प्रथा की समाप्ति, स्त्री-शिक्षा का प्रसार, स्त्रियों को नौकरी करना, संयुक्त परिवार का विघटन और जाति प्रथा का विरोध आदि।

निष्कर्ष – उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक परिवर्तन के लिए कोई एक कारक उत्तरदायी नहीं है। इसे अनेक कारक प्रोत्साहन देते हैं तथा कई बार यह विविध प्रकार के कारकों का सामूहिक परिणाम होता है। यही कारक भारत में भी सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी हैं।

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