आधुनिक समय में ‘बाल-अपराध’ (Juvenile Delinquency) अत्यन्त गम्भीर सामाजिक समस्या के रूप में उभर रहे हैं। विश्व के प्रायः समस्त देशों में बाल-अपराधियों की संख्या में निरन्तर तथा अबाध गति से वृद्धि हो रही है। विभिन्न कारकों के प्रभाव से बालकों की प्रवृत्ति समाज-विरोधी । कार्यों की ओर बढ़ती जा रही है। बाल-अपराध जैसे गम्भीर एवं जटिल समस्या निश्चय ही विभिन्न कारकों की क्रियाशीलतों का परिणाम है।
बाल-अपराध के कारण (Causes of Juvenile Delinquency)
अपराधशास्त्र की नवीन विचारधाओं के अन्तर्गत बाल-अपराध के विभिन्न कारणों को कई प्रकार से वर्गीकृत किया गया है। कुछ अपराधशास्त्रियों ने इसे दो कारकों में बाँटा है(अ) आन्तरिक कारण–इनमें शारीरिक व मनोवैज्ञानिक कारक सम्मिलित हैं। (ब) बाह्य कारण–इनमें विभिन्न सामाजिक कारण आते हैं। अमेरिकी अपराधशास्त्री लिंडस्मिथ तथा डनहेम ने इनके दो वर्ग बताये हैं – (अ) सामाजिक अपराधी तथा (ब) व्यक्तिगत अपराधी। सामाजिक अपराधी सामाजिक कारणों से तथा व्यक्तिगत अपराधी व्यक्तिगत कारणों से पैदा होते हैं। वाल्टर रैकलैस ने (अ) रचनात्मक–स्वयं व्यक्ति की संरचना में सन्निहित तथा (ब) परिस्थितिगतपरिस्थितिजन्य कारण-दो कारण बताये हैं। इसी कारण कुछ विद्वानों की दृष्टि में (i) समाजजन्य कारण तथा (i) मनोजन्य कारणों से बाल-अपराधी उत्पन्न होते हैं।
बाल-अपराध के सामाजिक कारण (Social Causes of Juvenile Delinquency)
बाल-अपराध के सर्वप्रमुख एवं व्यापक कारक सामाजिक कारण हैं। समाज की कुछ परिस्थितियाँ बालक को अपराधी बनने के लिए मजबूर कर देती हैं; इसीलिए इन्हें परिस्थितिजन्य अथवा समाजजन्य कारण भी कहा जाता है। बाल-अपराध के प्रमुख सामाजिक कारण निम्नलिखित हैं।
(1) परिवार – परिवार एक आधारभूत सामाजिक संस्था है जो सामाजिक नियन्त्रण के लिए अत्यन्त शक्तिशाली साधन भी है। परिवार की सामान्य परिस्थितियाँ यदि अपराध के विरुद्ध सुरक्षा कवच का कार्य करते हैं तो इसके विपरीत परिवार की असामान्य परिस्थितियाँ बालक के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा उपस्थित करती हैं। कभी-कभी परिवार ही ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देता है। जिनसे विवश होकर बालक अपराध करता है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री इलियट तथा मैरिल ने बाल-अपराध का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण परिवार का दुष्प्रभाव माना है। हीली तथा ब्रोनर ने अमेरिका में घनी आबादी वाले शिकागो एवं बोस्टन नगर के 4000 बाल-अपराधियों का अध्ययन किया। इनमें से 20% वे किशोर थे जो पारिवारिक परिस्थितियों के दुष्प्रभाव से अपराधी बने थे। परिवार की वे प्रमुख परिस्थितियाँ जिनसे प्रेरित होकर बालक अपराध करता है निम्नलिखित हैं
(i) भग्न परिवार – ऐसा परिवार जिसमें पति-पत्नी में मतैक्य न हो, उनमें पृथक्करण हो गया हो, एक ने दूसरे को तलाक दे दिया हो या दोनों में से कोई एक मर गया हो अथवा अन्य किसी कारण से परिवार अपूर्ण हो तथा उसमें संगठन का अभाव हो, भग्न परिवार कहलाता है। इन परिवारों में बालकों की उपेक्षा होने लगती है, उनकी इच्छाएँ या आवश्यकताएँ अधूरी रहती हैं तथा उनमें विचारों के संघर्ष उठा करते हैं। ऐसे अस्थिर मन और असन्तुलित व्यक्तित्व के कारण वे अनुचित एवं अनैतिक कार्य कर बैठते हैं। अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि अधिकांश बाल-अपराधी भग्न परिवारों की देन हैं।
(ii) अन-अपेक्षित एवं अधिक बच्चे – अधिक बच्चों वाले परिवार में बालक की उपेक्षा स्वाभाविक है। एक शोध कार्य का निष्कर्ष था कि 6 बच्चों वाले 336 परिवारों में 12% बच्चे अपराधी बने गये। अन-अपेक्षित बालक असामान्य दशाओं में पलते हैं। कभी-कभी अपने माता-पिता के सान्निध्य से वंचित रहकर उन्हें किसी अनाथालय आदि की शरण लेनी पड़ती है; अत: उन्हें माता-पिता का लाड़-प्यार नहीं मिल पाता। इसके अतिरिक्त उन्हें समाज की घृणा ही सहनी पड़ती है। इसके फलस्वरूप संवेगात्मक संघर्ष के कारण उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है और वे अपने विरोधी पक्ष के प्रति असामान्य व उग्र व्यवहार प्रदर्शित करने लगते हैं। परिवार में अधिक बच्चों या अन-अपेक्षित बच्चों की सामान्य आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं हो पातीं जिनकी क्षतिपूर्ति वे अपराधों द्वारा करते हैं।
(iii) माता-पिता का असमान या उपेक्षापूर्ण व्यवहार – माता-पिता को बच्चों का साथ असमान या उपेक्षापूर्ण व्यवहार भी अपराध का कारण बनता है। प्रायः माता-पिता सबसे बड़े या सबसे छोटे बच्चो को अधिक लाड़-प्यार करते हैं जिससे वह बच्चा स्वयं को दूसरों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण समझने लगता है और अपने अधिकारों के प्रति आवश्यकता से अधिक जागरूक हो जाता है। दूसरे भाई-बहन ‘स्वयं को तिरस्कृत एवं उपेक्षित महसूस कर उससे ईष्र्या रखने लगते हैं। वे शनैः-शनैः असामाजिक होने लगते हैं तथा समाज-विरोधी कृत्यों द्वारा अपराध की ओर उन्मुख होते हैं।
(iv) विमाता या विपिता का दुर्व्यवहार – सौतेली माँ का दुर्व्यवहार बच्चे को घर से भाग जाने तथा बुरी संगत में फँस जाने को बाध्य करता है। माँ के प्रेम से वंचित तथा अपने को अपेक्षित समझने वाले ये बच्चे प्रतिक्रिया स्वरूप विरोध प्रकट करने के लिए समाज-विरोधी कार्यों में जुट जाते हैं। ऐसी विधवा स्त्री जिसकी पहले पति से सन्तान हों, यदि दूसरा विवाह कर लेती है तो उसकी पूर्व सन्तानों को अपने नये पिता से वांछित व्यवहार नहीं मिल पाता। ऐसी दशाओं में भी बच्चे अपराध की दुनिया में कदम रख देते हैं।
(v) परिवार के अन्य सदस्यों का अनैतिक प्रभाव – बालक अधिकांश बातें अनुकरण से सीखते हैं। अतः परिवार के अन्य सदस्यों; जैसे – बालक के भाई-बहन, चाचा, मामा, मौसी, बुआ आदि का कोई भी अनैतिक व्यवहार या समाज-विरोधी कार्य स्वभावतः उन पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। प्रायः अपराधी प्रवृत्ति के बड़े भाई-बहन का आचरण छोटे बालक को अपराधी की दिशा में मोड़ देता है। मिस इलियट ने अपराधी बालिकाओं से सम्बन्धित एक अध्ययन में पाया कि 67% अपराधी लड़कियाँ अनैतिक परिवारों की थीं।
(vi) माता-पिता की बेकारी – जिन परिवारों में माता-पिता बेरोजगार होते हैं तथा धनोपार्जन नहीं कर पाते, ऐसे परिवारों में अभावग्रस्तता के कारण बच्चों को अपने निर्वाह के विषय में स्वयं सोचना पड़ता है। इन परिवारों के बच्चे, असामाजिक, अनैतिक व कानून-विरोधी कार्य करना शुरू कर देते हैं।
(2) विद्यालय – परिवार की भाँति विद्यालय भी बालक के समाजीकरण तथा सामाजिक प्रशिक्षण का एक सशक्त माध्यम है। विद्यालय की शिक्षा, साहचर्य तथा प्रशिक्षण बालक के व्यक्तित्व पर जीवन-पर्यन्त असर रखते हैं। बालक को अपराधी बनाने में विद्यालय का भी बड़ा योगदान है। आदर्शात्मक व्यवहार को विकसित करने का अभिकरण समझी जाने वाली ‘कुंछ शिक्षा संस्थाएँ तो बाल-अपराधों के प्रशिक्षण केन्द्र का कार्य कर रही हैं। विद्यालयों की शिक्षा न तो बालकों के लिए रुचिपूर्ण है और न ही सार्थक विद्यालय बालकों को अपनी ओर आकर्षित नहीं करता, बल्कि अधिकांश बालकों के लिए वह दिन का कारावास है। अमनोवैज्ञानिक शिक्षण, शिक्षक का दुर्व्यवहार, दुरूह पाठ्यक्रम, कठोर अनुशासन और दण्ड बालक को स्कूल से भागने के लिए प्रेरित करता है। स्कूल से भागा हुआ बच्चा आवारागर्दी करता है; वह चोरी, लड़ाई-झगड़ा, फिल्म तथा यौन अपराधों की शरण लेता है। अधिकांश किशोर पेशेवर अपराधियों के चंगुल में फंस जाते हैं। बहुत-से विद्यालयों के किशोर मादक द्रव्यों का सेवन करते हैं तथा उसी के दुश्चक्र में फंसकर अपराधी बन जाते हैं। स्पष्टत: आज के विद्यालयों का वातावरण बाल-अपराधियों की संख्या में वृद्धि करने वाला है।
(3) अपराधी क्षेत्र या समुदाय – कुछ सामाजिक क्षेत्र अथवा समुदाय ऐसे हैं जहाँ कोई सामाजिक नियम लागू नहीं होता जिसके परिणामस्वरूप वहाँ अपराधियों तथा अपराधों की संख्या बढ़ जाती है। भिन्न-भिन्न बस्तियों में बाल-अपराध की भिन्न-भिन्न दर पायी जाती है। महानगरों की झोंपड़-पट्टियाँ (Slums) अस्थिर बस्तियाँ होती हैं, इनमें सबसे निचले वर्ग के गरीब और अशिक्षित लोग रहते हैं। इन स्थानों पर निर्धनता, अशिक्षा, बीमारी, पारिवारिक विघटन, मानसिक विकार आदि की विषम परिस्थितियाँ बनी रहती हैं तथा मनोरंजन के स्वस्थ साधनों का पूर्ण अभाव रहता है। इन्हीं कारणों से यहाँ अपराध पनपते हैं और अपराधी लोग शरण भी पाते हैं। अपराध की दर बस्ती की सघनता के साथ चलती है। कम बसी हुई बस्तियों में कम अपराध तथा घनी बसी हुई बस्तियों की अपराध दर अधिक होती है। कुछ नगरों में विशेष रूप से अपराध-क्षेत्र बन जाते हैं; जैसे-लालबत्ती क्षेत्र जो वेश्यावृत्ति का स्थान होता है। यहाँ चोर-उचक्के, जुआरी, जेबकतरे, दलाल तथा विभिन्न असामाजिक धन्धे करने वाले बहुतायत से मिलते हैं। इन क्षेत्रों से सम्बन्धित बालक इसके गम्भीर दुष्प्रभाव से नहीं बच पाते। इसके अतिरिक्त पुलिस के रिकॉर्ड में कुछ अपराधी जातियों, जिन्हें जरायमपेशा जातियाँ कहते हैं, दर्ज होती हैं। इनके लिए अपराध एक पेशे के रूप में मान्य हैं; अत: इनके अनुभवी व बुजुर्ग लोग अपने बालकों को चोरी, उठाईगिरि, सेंध लगाना तथा जेब काटना आदि स्वयं सिखाते हैं।
(4) बुरी संगति – बुरी संगति बालक को अपराध की ओर ले जाती है। जिन घरों के पड़ोस में चोर-उचक्के, गुण्डे, शराबी या वेश्याओं का निवास होता है, उनसे प्रभावित बालक उन्हीं की तरह की क्रियाएँ करने लगते हैं। चरित्रहीन एवं अनैतिक प्रौढ़ों के सम्पर्क में रहने वाले बालकों में गन्दी आदतें पड़ जाती हैं। कुछ प्रौढ़ समलिंगी दुराचार के आदी होते हैं तथा छोटी आयु के बालकों को अपना शिकार बनाते हैं। ऐसे बालक जल्दी ही यौन विकारों के शिकंजे में फंस जाते हैं। इसी प्रकार समवयस्क साथियों की बुरी संगति भी बालक को आवारा और अपराधी बना देती है।