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ईष्र्या का यही अनोखा वरदान है। जिस मनुष्य के हृदय में ईष्र्या घर बना लेती है, वह उन चीजों से आनन्द नहीं उठाता, जो उसके पास मौजूद हैं, बल्कि उन वस्तुओं से दु:ख उठाता है, जो दूसरों के पास हैं। वह अपनी तुलना दूसरों के साथ करता है और इस तुलना में अपने पक्ष के सभी अभाव उसके हृदय पर दंश मारते रहते हैं। दंश के इस दाह को भोगना कोई अच्छी बात नहीं है। मगर, ईष्र्यालु मनुष्य करे भी तो क्या?  आदत से लाचार होकर उसे यह वेदना भोगनी पड़ती है।

(अ) प्रस्तुत गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।
(स)
⦁    प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने क्या कहा है ?
⦁    ईर्ष्यालु मनुष्य क्या करता है ?
⦁    ईष्र्यालु मनुष्य को कौन-सी वेदना भोगनी पड़ती है ?
⦁    लेखक ने ईष्र्या को अनोखा वरदान क्यों कहा है ?
⦁    ईष्र्या का अनोखा  वरदान क्या है ?
⦁    ईष्र्यालु व्यक्ति को ईष्र्या से क्या कष्ट मिलता है ?
 
[ ईष्र्या = दूसरों से जलन, डाह। दंश मारना = डंक मारना। दाह = जलन। वेदना = पीड़ा। ]

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(अ) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘गद्य-खण्ड में संकलित एवं श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा लिखित ‘ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से’ नामक मनोवैज्ञानिक निबन्ध से उद्धृत है। अथवा अग्रवत् लिखिए पाठ का नाम-ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से। लेखक का नाम-श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’।

(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत अंश में लेखक ने बताया है कि ईष्र्या अपने भक्त को एक विचित्र प्रकार का वरदान देती है और वह सदैव दु:खी रहने का वरदान है। जिस मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या उत्पन्न हो जाती है, वह अकारण ही कष्ट भोगता है। वह अपने पास विद्यमान अनन्त सुख-साधनों के उपभोग द्वारा भी आनन्द नहीं उठा पाता; क्योंकि वह दूसरों की वस्तुओं को देख-देखकर मन में जलता रहता है।
द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी का कहना है कि जब ईष्र्यालु मनुष्य यह देखता है कि कोई वस्तु किसी अन्य के पास है लेकिन उसके पास नहीं है तो उसके मन में पनपी यह अभाव की भावना सदैव उसे डंक मारती रहती है। लेखक का कहना है कि डंक से उत्पन्न कष्ट को सहन करना उचित नहीं है। लेकिन ईष्र्यालु मनुष्य कष्ट को सहन करने के अतिरिक्त और कुछ कर भी नहीं सकता।

(स)
⦁    प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने ईर्ष्या से उत्पन्न पीड़ा का वर्णन किया है और कहा है कि ईष्र्यालु व्यक्ति सदा दु:खी रहता है।
⦁    ईष्र्यालु व्यक्ति अपनी तुलना ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों से करता है जो उससे किन्हीं बातों में श्रेष्ठ हैं। जब वह देखता है कि अमुक वस्तु दूसरे के पास तो है, लेकिन उसके पास नहीं है, तब वह स्वयं को हीन समझने लगता है। अपने अभाव उसे खटकने लगते हैं और वह अपने पास मौजूद वस्तुओं अथवा साधनों का भी आनन्द नहीं ले पाता।
⦁    ईर्ष्यालु व्यक्ति रात-दिन इसी वेदना में जला करता  है कि अमुक वस्तु दूसरों के पास तो है लेकिन उसके पास नहीं है। ईष्र्या की इस दाह में जलना बहुत बुरा है, लेकिन ईर्ष्यालु व्यक्ति को यह वेदना भोगनी ही पड़ती है।
⦁    लेखक ने ईष्र्या को अनोखा वरदान इसलिए कहा है क्योंकि ईष्र्यालु मनुष्य उन वस्तुओं से आनन्द नहीं प्राप्त करता जो उसके पास हैं, वरन् उन वस्तुओं से दु:ख उठाता है, जो दूसरों के पास हैं।
⦁    ईर्ष्या का अनोखा वरदान यह है कि ईष्र्यालु व्यक्ति उन वस्तुओं से आनन्द नहीं उठाता जो उसके पास हैं, वरन् वह उन वस्तुओं से दु:ख उठाता है, जो दूसरों के पास हैं।
⦁    ईष्र्यालु व्यक्ति को ईर्ष्या के कारण उन वस्तुओं से आनन्द नहीं मिलता जो उसके पास हैं वरन् वह उन वस्तुओं से दु:ख उठाता है, जो दूसरों के पास हैं।

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