(अ) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘गद्य-खण्ड में संकलित एवं श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा लिखित ‘ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से’ नामक मनोवैज्ञानिक निबन्ध से उद्धृत है। अथवा अग्रवत् लिखिए पाठ का नाम-ईष्र्या, तू न गयी मेरे मन से। लेखक का नाम-श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’।
(ब) रेखांकित अंश की व्याख्या-प्रस्तुत गद्य-अंश में लेखक ने यह बताया है कि प्रायः निन्दा करने वाला, अपने कटु वचनरूपी बाणों से अपने प्रतिद्वन्द्वी को घायल कर हँसता है और आनन्दित होता है। वह समझता है कि उसने निन्दा करके अपने प्रतिद्वन्द्वी को दूसरों की दृष्टि से नीचे गिरा दिया है और अपना स्थान दूसरों की दृष्टि में ऊँचा बना लिया है। इसीलिए वह प्रसन्न होता है और इसी प्रसन्नता को प्राप्त करना उसका लक्ष्य होता है; किन्तु सच्चे अर्थ में ईष्र्यालु व्यक्ति की यह हँसी और यह क्रूर आनन्द उसमें छिपे राक्षस की हँसी और आनन्द है। यह न तो मनुष्यता की हँसी है और न ही मानवता का आनन्द।
(स)
⦁ प्रस्तुत गद्यांश में लेखक कहना चाहता है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति राक्षस के समान होता है।
⦁ ईष्र्यालु व्यक्ति की हँसी और आनन्द सामान्य मनुष्य की हँसी और आनन्द के जैसी नहीं होती वरन्। उसकी हँसी राक्षस की हँसी के समान और आनन्द दैत्यों के आनन्द के समान होता है।