Use app×
QUIZARD
QUIZARD
JEE MAIN 2026 Crash Course
NEET 2026 Crash Course
CLASS 12 FOUNDATION COURSE
CLASS 10 FOUNDATION COURSE
CLASS 9 FOUNDATION COURSE
CLASS 8 FOUNDATION COURSE
0 votes
986 views
in Hindi by (47.6k points)
closed by

निबन्ध:

पर उपदेश कुशल बहुतेरे

1 Answer

+1 vote
by (49.7k points)
selected by
 
Best answer

प्रस्तावना-दूसरों को उपदेश देना बहुत ही आसान कार्य है; क्योंकि दूसरों को उपदेश देने में स्वयं का कुछ नहीं लगता; बस जरा-सी जीभ ही हिलानी पड़ती है। परन्तु इसे आचरण में उतारना कोई हँसी-खेल नहीं है। यह हवा में गाँठ लगाने के सदृश कठिन ही नहीं, अपितु अति कठिन है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने ‘श्रीरामचरितमानस में मानव-जीवन को प्रेरणा देने वाली व योग्य दिशा-निर्देश करने वाली कितनी ही सूक्तियाँ सँजो रखी हैं, जिनमें से एक यह भी है। मेघनाद जब युद्ध में मारा जाता है तो मन्दोदरी आदि रावण की रानियाँ विलाप  कर रोने लगती हैं। उस समय रावण जगत् की नश्वरता आदि का बखानकर उन्हें समझाने लगता है। इसी अवसर पर गोस्वामी जी लिखते हैं

तिन्हहिं ग्यान उपदेसा रावन। आपुन मंद कथा सुभ पावन ॥
पर उपदेश कुशल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥

अर्थात् रावण उन्हें तो उपदेश देने लगा, पर स्वयं उसका आचरण क्या था? एक असहाय परायी नारी को बलपूर्वक उठा लाना, उसके लिए समस्त लंका-राज्य, बन्धु-बान्धव, स्वजन-परिजन को विनष्ट करा डालना। इस प्रकार वह स्वयं तो था पापाचारी, पर बातें बड़ी ऊँची और शुभ करता था। ऐसे ही व्यक्तियों को लक्ष्य करते हुए कबीर ने लिखा है

अपना मन निश्चल नहीं, और बँधावत धीर।
पानी मिले न आप को, औरहु बकसत हीर॥

सचमुच दूसरों को उपदेश देने में बहुत-से लोग बड़े कुशल होते हैं; पर उसे स्वयं अपने आचरण में उतारकर दिखाने वाले बिरले ही होते हैं।

पर उपदेश द्वारा अहं की सन्तुष्टि—किसी विद्वान् व्यक्ति का कथन है कि “परोपदेश पाण्डित्यं’, अर्थात् दूसरों को उपदेश देने में लोग अपनी पण्डिताई अथवा विद्वत्ता का प्रदर्शन करते हैं।

वस्तुत: मनुष्य में दूसरों को उपदेश देने की प्रवृत्ति बहुत सामान्य है। इसका कारण यह है कि इस प्रकार वह दूसरों पर अपनी श्रेष्ठता, अपनी विद्वत्ता की धाक जमाकर अपने अहं को सन्तुष्ट करना चाहता है। यह भी देखने में आता है कि जो जितना खोखला होता है, आचरण से गिरा होता है, दूसरों को उपदेश देने में वह उतना ही उत्साह प्रकट करता है। इसका मनोवैज्ञानिक कारण कदाचित् यही है कि आचरण-हीनता से उसके अन्दर हीनता की जो एक ग्रन्थि बन जाती है, उसे वह इस प्रकार के आडम्बर से दबाना चाहता है।

विचार से आचार श्रेष्ठ-किसी विचारक का कथन है, “आचरण का एक कण सम्पूर्ण भाषण से कहीं अधिक श्रेष्ठ है।” एक लघुकथा से यह बात अधिक स्पष्ट हो जाती है—कौरव-पाण्डव बाल्यावस्था में गुरुजी के पास विद्याध्ययन के लिए गये। गुरुजी ने पहला पाठ दिया,  ‘सत्यं वद’ (सत्य बोलो)। अन्य बच्चों ने तो पाठ तत्काल याद करके सुना दिया, पर युधिष्ठिर न सुना सके। एक-एक करके कई दिन बीत गये। युधिष्ठिर यही कहते रहे-“पाठ अभी ठीक से याद नहीं हुआ। एक दिन बोले-“याद हो गया।” गुरुजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा-“युधिष्ठिर, जरा-सा पाठ याद करने में तुम्हें इतना समय कैसे लग गया?’ युधिष्ठिर ने नम्रतापूर्वक कहा-“गुरुदेव! आपके दिये पाठ के शब्द रटने थोड़े ही थे, उन्हें तो व्यवहार में उतारना था। मुझसे कभी-कभी असत्य भाषण हो जाता था। अब इतने दिनों के अभ्यास से ही उस दुर्बलता को दूर कर सका हूँ। इसी से कहता हूँ कि पाठ याद हो गया।” गुरुदेव युधिष्ठिर की ऐसी निष्ठा देखकर गद्गद हो गये। उन्होंने उन्हें गले से लगा लिया। इसी आचरण के बल पर युधिष्ठिर आगे चल कर धर्मराज कहलाये।

आचरण का ही प्रभाव पड़ता है-आज के नेताओं में उपदेश देने की कला प्रचुरता से विद्यमान है। वे मंच पर खड़े होकर भोली-भाली जनता के समक्ष मितव्ययिता का उपदेश देते हैं, परन्तु स्वयं पाँच सितारा । होटलों में आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त वैभव का उपभोग करते हैं। सत्य ही कहा है-

कथनी मीठी खाँड़ सी, करनी विष की लोय।
कथनी तज करनी करै, तो विष से अमृत होय॥

महापुरुषों के लक्षण बताते हुए एक विचारक ने कहा है, “ने जैसा सोचते हैं, वे कहते हैं और जैसा कहते हैं, वैसा ही करते हैं।’ मन से, वचन से और कर्म से वे क रूप होते हैं। जो केवल कहते ही हैं, तदनुरूप आचरण नहीं करते, उनकी बातो का लोगों पर कोई प्रभाव नहीं होता। आदरणीय बापू जी उपदेश देने से पूर्व स्वयं आचरण करते थे। स्वयं आचरण करके ही उसे दूसरों से करने के लिए कहते थे। यह है उन असाधारण पुरुषों की बात, जो वाक्शुरता में नहीं, आचरण की शूरता में विश्वास रखते थे। ऐसे लोगों की वाणी से ऐसा ओज प्रकट होता है कि सुनने वाला प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। यह है कथनी और करनी की एकता का प्रभाव।  वास्तव में कथनी को करनी में परिणत करके दिखाने वाले लोग असाधारण होते हैं। ऐसे ही आचारनिष्ठ लोगों से जन-जीवन प्रभावित होता है।

अनाचरित उपदेश प्रभावक नहीं होता–जो व्यक्ति अपनी लच्छेदार भाा में प्रभावोत्पादक उपदेश देता है, लेकिन स्वयं उस उपदेश के अनुसार आचरण नहीं करता: ऐसे लोगों की प्रभावकता अधिक समय तक नहीं टिकती। ‘ढोल की पोल’ भन्ना कितने दिनों तक छिपी रह सकती हैं। ऐसे लोगों का उपदेश ‘थोथा चना बाजे घना’ के अनुसार कोरी बकवास ही समझा जाता है। सफेद पोशाक पहनकर, मुग्धकारी और मनमोहक वाणी में बोलने वालों की जब कलई खुल जाती है तो जनता में ऐसे लोग घृणा के पात्र बन जाते हैं।

उपसंहार-समाज में ऐसे लोगों की भरमार है, जिनकी कथनी और करन में कोई तालमेल ही नहीं। ऐसे ही लोगों से समाज में पाखण्ड और मिथ्याचार पनपते हैं तथा सच्चाई छिप जाती है। फलतः इनसे समाज का हित होना तो दूर, अहित ही होता है। तोला भर आचरण सेर  खोखले उपदेश से बढ़कर है, इसीलिए एक विद्वान् ने लिखा है-‘Example is better than precept.’ (उपदेश से आचरण भला)।

Related questions

Welcome to Sarthaks eConnect: A unique platform where students can interact with teachers/experts/students to get solutions to their queries. Students (upto class 10+2) preparing for All Government Exams, CBSE Board Exam, ICSE Board Exam, State Board Exam, JEE (Mains+Advance) and NEET can ask questions from any subject and get quick answers by subject teachers/ experts/mentors/students.

Categories

...