प्रेमी ढूँढत मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोइ।
प्रेमी की प्रेमी मिलै, सब विष अमृत होइ ।।2।।
भावार्थ : कबीर कहते हैं कि मैं प्रेमी अर्थात् प्रभु-भक्त को ढूँढ़ रहा था, परन्तु अपने अहंकार के कारण गुझे कोई प्रभु-भक्त नहीं मिला। लेकिन जब एक प्रभु-भक्त से दूसरा प्रभु-भक्त मिलता है तो हृदय में रही सारी विषरूपी बुराइयाँ अमृतरूपी अच्छाइयों में बदल जाती हैं।
1. ‘प्रेमी’ किसे कहा गया है ?
2. कवि किसे ढूँढ रहा है ? वह सफल क्यों नहीं हो रहा है ?
3. प्रेमी से प्रेमी मिलने पर क्या असर होता है ?
4. ‘प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरौं’ पंक्ति में कौन-सा अलंकार है ?