सच्ची माँ अथवा न्यायाधीश का फैसला
किसी नगर में दो स्त्रियाँ पास-पड़ोस में रहती थी। उनमें एक स्त्री बड़ी चालाक और झगड़ालू थी। उसके कोई संतान नहीं थी। दूसरी स्त्री बड़ी सरल और मिलनसार थी। उसके एक बेटा था। प।जिए।
एक बार संतानवाली स्त्री अपने बच्चे को घर में अकेला छोड़कर बाहर गई हुई थी। मौका पाकर निःसंतान स्त्री बच्चे को पालने से उठाकर ले गई। फिर वह फौरन, बाहर चली गई।
बच्चे के गुम हो जाने पर बच्चे की माँ बहुत दुःखी हुई। उसने किसी तरह अपनी चोर पड़ोसिन का पता लगाया और उसके पास जाकर अपना बच्चा माँगा। तब उसने कहा, “यह मेरा बेटा है। मैं न दूँगी, जो चाहे सो कर ले।” दोनों में खूब झगड़ा हुआ। तब लोगों ने उन्हें न्यायालय में जाकर झगड़े का निपटारा करने की सलाह दी।
आखिर दोनों स्त्रियाँ न्यायाधीश के पास पहुँचीं। बच्चे पर दोनों का एक-सा दावा देखकर न्यायाधीश ने अपने कर्मचारी को आदेश दिया, “इस बच्चे के दो बराबर टुकड़े करो और एक-एक दोनों स्त्रियों को दे दो।” न्यायाधीश का फैसला सुनकर नि:संतान स्त्री तो चुप रही, पर बच्चे की माँ रोकर कहने लगी, “हुजूर आप बच्चे को मारिए मत। चाहे तो उसे ही सोंप दीजिए। इस तरह मेरा बेटा जीवित तो रहेगा।”
चतुर न्यायाधीश फौरन समझ गया कि दोनों में सच्ची माँ कौन है। उसने सच्ची माता को उसका बच्चा सौंप देने और नि:संतान स्त्री को हिरासत में लेने का हुक्म दिया। सीख : आखिर सत्य की ही विजय होती है।