भारतीयों को अंग्रेज़ी अदालतों में जूता पहन कर जाने की अनुमति नहीं थी। 1862 ई० में सूरत की अदालत में जूता सभ्याचार संबंधी एक प्रमुख मामला आया। सूरत की फ़ौजदारी अदालत में मनोकजी कोवासजी एंटी (Manockjee Cowasjee Entee) नामक व्यक्ति ने जिला जज के सामने जूता उतारकर जाने से मना कर दिया था। जज ने उन्हें जूता उतारने के लिए बाध्य किया, क्योंकि बड़ों का सम्मान करना भारतीयों की परंपरा थी। परंतु मनोकजी अपनी बात पर अड़े रहे। उन्हें अदालत में जाने से रोक दिया गया। अतः उन्होंने विरोध स्वरूप एक पत्र मुंबई (बंबई) के गवर्नर को लिखा।
अंग्रेज़ों ने दबाव देकर कहा कि क्योंकि भारतीय किसी पवित्र स्थान अथवा घर में जूता उतार कर प्रवेश करते हैं, इसलिए वे अदालत में भी जूता उतार कर प्रवेश करें। इसके विरोध में भारतीयों ने प्रत्युत्तर में कहा कि पवित्र स्थान तथा घर में जूता उतार कर जाने के पीछे दो विभिन्न अवधारणाएं हैं। प्रथम इससे मिट्टी और गंदगी की समस्या जुड़ी है। सड़क पर चलते समय जूतों को मिट्टी लग जाती है। इस मिट्टी को सफ़ाई वाले स्थानों पर नहीं जाने दिया जा सकता था। दूसरे, वे चमड़े के जूते को अशुद्ध और उसके नीचे की गंदगी को प्रदूषण फैलाने वाला मानते हैं। इसके अतिरिक्त, अदालत जैसा सार्वजनिक स्थान आखिर घर तो नहीं है। परंतु इस विवाद का कोई हल न निकला। अदालत में जूता पहनने की अनुमति मिलने में बहुत से वर्ष लग गए।